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ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन
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न कहे । रागद्वेषरहित साधु दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले कठोर वचन सत्य हों, तो भी न कहे । साधु पूजा - सत्कार आदि पाकर गर्व न करे, तथा अपनी प्रशंसा न करे । साधु सदा चित्त की शुद्धि से युक्त तथा लोभादि से मुक्त होकर रहे ||२१|
सूत्र और अर्थ के विषय में निःशंक होने पर भी सर्वज्ञ के वचन से कहीं विरुद्ध तो नहीं है, इस प्रकार शक्ति-सा विनम्र होकर बोले तथा व्याख्यान आदि के समय स्याद्वादमय वचन बोले एवं धर्माचरण में समुत्थित - समुद्यत साधुओं के साथ रहता हुआ साधु सत्य-भाषा और सत्यामृषा (जो असत्य न हो, मिथ्या भी न हो ) इन दो भाषाओं का प्रयोग करे । वह धनिक और निर्धन दोनों को समभाव से धर्म कहे ||२२||
पूर्वोक्त दो भाषाओं का आश्रय लेकर धर्म की व्याख्या करते हुए साधु के कथन को कोई बुद्धिशाली व्यक्ति तो यथार्थरूप में समझ लेते हैं, लेकिन कुछ माई के लाल मंदबुद्धि होते हैं, जो उसका उलटा अर्थ लगाते हैं । अतः उन विपरीत समझने वालों को साधु हेतु, युक्ति, दृष्टान्त द्वारा मधुर शब्दों में समझाने का प्रयत्न करे। मगर उसे झिड़ककर या ठीक न समझने वाले का अनादर करके उसके दिल को चोट न पहुँचाए । साधु उस प्रश्नकर्ता की भाषा की मजाक न उड़ाए, उसे ताने या व्यंग्य न कसे । जो छोटी-सी बात है उसे शब्दाडम्बर करके बहुत विस्तार से न कहे ||२३||
जो बात थोड़े शब्दों में कहने से समझ में नहीं आती, उसे साधु विस्तार से कहकर समझाए तथा गुरुदेव से पदार्थ को अच्छी तरह समझकर वीतराग- आज्ञा ( शास्त्र - वचन) से शुद्ध वचन बोले । साधु पाप का विवेक रखता हुआ निर्दोष, निरवद्य वचन बोले ||२४||
साधु तीर्थंकरों और गणधरों के द्वारा कथित रचित आगमों की अच्छी तरह शिक्षा प्राप्त करे, और उसमें सतत पुरुषार्थ करे । मर्यादा का अतिक्रमण (भंग) करके साधु बहुत ज्यादा न बोले । सम्यग्दृष्टि सम्पन्न साधु अपने सम्यक्त्व को दूषित न करे, जो साधु इस प्रकार उपदेश कर सकता है, वही सर्वज्ञोक्त भावसमाधि को जानता है ||२५||
साधु आगम के अर्थ को दूषित न करे तथा सिद्धान्त को न छिपाए, और न ही प्राणिरक्षक साधु सूत्र और अर्थ को अन्यथा करे । शिक्षा देने वाले (शास्ता ) गुरु की भक्ति का ध्यान रखते हुए सोच-विचारकर कोई बात कहे । तथा उसने गुरु से जिस प्रकार से जैसा अर्थ या व्याख्या सुनी है, तदनुसार वैसी ही सूत्र की व्याख्या करे || २६।।
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