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सूत्रकृतांग सूत्र
भ्रमणरूप अशान्ति को प्रकट करूंगा, यह सुधर्मास्वामी का अभिवचन है, जिसे वे आगे की गाथाओं में क्रमश: पूरा करते हैं।
मूल पाठ अहो य राओ अ समुठिएहि, तहागएहि पडिलब्भधम्म । समाहिमाघातमजोसयंता, सत्थारमेवं फरुसं वयंति ॥२॥
संस्कृत छाया अहनि च रात्रौ च समुत्थितेभ्यस्तथागतेभ्यः प्रतिलभ्य धर्मम् । समाधिमाख्यातमजोषयन्त:, शास्तारमेवं परुषं वदन्ति ॥२॥
अन्वयार्थ (अहो य राओ अ समुट्ठिएहि तहागएहि) दिन-रात सम्यकप से सदनुष्ठान करने में प्रवृत्त तथागतों---तीर्थंकरों से (धम्म पडिलब्भ) धर्म (श्रुतचारित्ररूप) को पाकर (आघात समाहिं अजोसयंता) तीर्थकरों द्वारा कथित समाधि-सम्यग्दर्शनादि मोक्षपद्धति का सेवन न करते हुए (जामालि आदि निह्नव) (सत्थारमेवं फरुसं वयंति) अपने प्रशास्ता-धर्मोपदेशक को ही कटुवाक्य कहते हैं।
भावार्थ अहर्निश उत्तम अनुष्ठान करने में प्रवृत्त तथागतों-तीर्थंकरों से धर्म प्राप्त करके तीर्थंकरोक्त समाधिमार्ग का आचरण न करते हुए कुछ निह्नव अपने प्रशास्ता-धर्मोपदेशक (तीर्थंकर) को ही अपशब्द कहते हैं ।
व्याख्या धर्मोपदेशक से धर्म पाकर उन्हीं को निन्दा करने वाले !
इस गाथा में याथातथ्य के सन्दर्भ में शास्त्रकार ने बताया है कि कुछ लोग अहनिश उत्तम अनुष्ठान में तत्पर तथागत प्रशास्ता तीर्थकरों से शुद्धधर्म का बोध पाकर भी अपनी मंदभाग्यता या मिथ्यात्व एवं मोहनीयकर्म के उदयवश उन्हीं प्रशास्ताओं की एवं उनके समाधिमार्ग या सिद्धान्तों की निन्दा, अवहेलना करते हैं, उनकी मखौल उड़ाते हैं और अपने आपको सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी, महात्मा सिद्ध करने की कोशिश करते हैं । यह अयाथातथ्य है । इस प्रकार के अयाथातथ्य या अयथार्थ विचार, वचन एवं कार्य से प्रत्येक साधक को बचना चाहिए और याथातथ्य मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
ऐसे लोग, जो वीतराग सर्वज्ञ प्रशास्ताप्रवर तीर्थकर की मजाक उड़ाते हैं, और उनके सिद्धान्त के विरुद्ध कुमार्ग की प्ररूपणा करते हैं, उदाहरणार्थ---जो व्यक्ति : क्रियमाण (किये जाते हुए) पदार्थ को कृत (किया हुआ) बताता है, वह सर्वज्ञ नहीं । है, तथा जो पात्र आदि उपकरणों के परिग्रह से भी मोक्ष बताता है, वह सर्वज्ञ नहीं ।
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