________________
सूत्रकृतांग सूत्र राग और द्वेष ये दो कर्म के बीज हैं, कर्मबन्धन के मूल कारण हैं । जब हिंसा होती है तब राग-द्वेष आदि की उत्पत्ति अवश्य होती है। राग-द्वेष आदि का मन में प्रादुर्भाव होना, वचन से रागादिवश वचन निकलना और काया से रागादि आवेश के वश होकर कुकृत्य होना ही तो हिंसा है । पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में स्पष्ट कहा है----
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवहिसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य' संक्षेपः ॥४४।। राग-द्वेष आदि की उत्पत्ति न होना ही अहिंसा है और राग-द्वेषादि की उत्पत्ति होना ही हिंसा है, यही जिनागम का सार है। इस दृष्टि से हिंसा कर्मबन्धन का कारण बनती है। एक बार उन हिंस्य प्राणियों के साथ वैर बँध जाने के बाद उसकी परम्परा जन्म-जन्मान्तर तक चलती है, इस वैर परम्परा के कारण कर्मबन्धन में वृद्धि होती रहती है । पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों का क्षय नहीं हो पाता किन्तु नये अशुभ कर्म बँधते जाते हैं, क्योंकि वैर परम्परा को समता, क्षमा, दया, पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त तप आदि उपायों से जब तक समाप्त नहीं किया जाता, तब तक कर्मबन्धन का सिलसिला जारी रहेगा, वह रुकेगा नहीं। इसी बात को विशिष्ट सर्वज्ञानी पुरुषों ने अपने ज्ञान के प्रकाश में जानकर 'वेरं वड्ढइ अप्पणो' से व्यंजना के द्वारा अभिव्यक्त की है कि 'भव्य पुरुषो ! इस हिंसा से बचो, जो वैर परम्परा को बढ़ाने वाली है और घोर कर्मबन्धन की कारण है।' हिंसा : क्या और कैसे ?
हिंसा जब कर्म-बन्धन की कारण है, तब प्रश्न होता है कि हिंसा क्या है ? स्थूल दृष्टि वाले लोग जान से किसी प्राणी को मार देना ही हिंसा समझते हैं। क्या हिंसा का यही लक्षण है ? इसका उत्तर शास्त्रकार इस तीसरी गाथा की पंक्ति द्वारा सूचित कर देते हैं- “सयं पाणे तिवायए।" अर्थात् प्राणों का अतिपात करना। जैन शास्त्रों में हिंसा के बदले अधिकतर 'प्राणातिपात' शब्द का प्रयोग किया गया है। उसका रहस्य यही है कि हिंसा केवल 'किसी प्राणी को जान से मार डालना' ही नहीं है, अपितु प्राणी के स्वामित्व में निम्नोक्त १० प्राण हैं, उनमें से किसी भी प्राण को आघात पहुँचाना, चोट पहुँचाना, अंग-भंग कर देना, प्राणों को मार-पीट करके घायल कर देना, अपमानित करके प्राणों को ठेस पहुँचाना या गाली एवं व्यंग वाणों के द्वारा मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाना, धमकी देकर, भय दिखा कर या आतंक जमा कर प्राणी को भयभीत व व्यथित कर देना, विकास, प्रगति, गति या तरक्की को रोक देना, प्राणी का दम घोंट देना, श्वास रोक देना, अन्धेरे में दमघोंट कारागार में बन्द कर देना, हाथ-पैर जकड़ कर बाँध देना, भूखा-प्यासा रखना, स्वतन्त्रता में बाधा डालना या नजरबन्द कैद कर देना, परस्पर फूट
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org