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सूत्रकृतांग सूत्र
न ही वह आधाकर्मी आहार की तलाश में धूमेगा, और न आधाकर्मी आहार लाने वालों या चाहने वालों से संसर्ग करेगा। बल्कि अगर किसी दिन आहार न मिला तो भी वह उपवास, ऊनोदरी आदि तप कर लेगा। शरीर को स्फूर्तिमान, तेजस्वी और हलका-फुलका बनाने के लिए शास्त्रकार की प्रेरणा के अनुसार वह तप द्वारा कृश करेगा, अथवा बहुत जन्मों के संचित कर्मों के क्षय के लिए प्रयत्न करेगा। शरीर के प्रति निरपेक्षता से उसे समाधि प्राप्त होगी।
मूल पाठ एगत्तमेय अभिपत्थएज्जा, एवं पमोक्खो न मुसंति पासं । एसप्पमोक्खो अमुसे वरेवि, अकोहणे सच्चरते तवस्सी ॥१२॥
संस्कृत छाया एकत्वमेतदभिप्रार्थयेदेवं प्रमोक्षो न मृषेति पश्य । एष प्रमोक्षोऽमृषा वरोऽपि, अक्रोधनः सत्यरतस्तपस्वी ॥१२॥
अन्वयार्थ (एगत्तमेयं अभिपत्थएज्जा) साधु एकत्व की भावना करे (एवं पमोक्खो न मुसंति पासं) एकत्व की भावना करने से ही साधु निःसंगता को प्राप्त होता है, यह मिथ्या नहीं, किन्तु सत्य जानो। (एसप्पमोक्खो अमुसे वरेवि) यह एकत्व भावना ही उत्कृष्ट मोक्ष है, तथा यही सच्ची भावसमाधि और प्रधान है। (अकोहणे सच्चरते तवस्सी) जो क्रोधरहित तथा सत्य में रत है, और तपस्वी है, वही सर्वश्रेष्ठ समाधिपरायण है।
भावार्थ साधु एकत्व की भावना करे। क्योंकि एकत्व की भावना करने से ही उसका संगमोक्ष (आसक्ति से मुक्ति) हो सकता है। यह मिथ्या नहीं, अपितु सत्य समझो। यह एकत्व भावना ही उत्कृष्ट मोक्ष है, यही सच्ची भावसमाधि है। जो इस भावना से युक्त होकर क्रोध नहीं करता, सत्यभाषी और तपस्वी है, वही साधक सर्वश्रेष्ठ समाधिपरायण है।
व्याख्या एकत्व भावना ही मोक्ष प्रदायक समाधि का द्वार
साधु एकत्व की भावना करे, दूसरे की सहायता, दूसरे का आलम्बन, दूसरे का आश्रय लेने की इच्छा न करे, यहाँ तक कि आहार-पानी, शरीर, साथी, मकान, वस्त्र, इन्द्रियाँ आदि की सहायता की अपेक्षा भी न रखे, या कम से कम रखे । क्योंकि प्रत्येक प्राणी इस संसार में अकेला ही आया है, अकेला ही जाएगा। अपनेअपनेकृत कर्म के अनुसार प्राणी अकेला ही उन कर्मों का शुभाशुभ फल भोगेगा,
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