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________________ समाधि : दशम अध्ययन व्याख्या ये समाधिभाव को प्राप्त नहीं कर सकते ? इस गाथा में शास्त्रकार ने दो प्रकार के साधकों को स्पष्टतः समाधिभाव से कोसों दूर बताया है— एक तो वे जो आधाकर्मी आहार या उपकरण आदि की प्रबल इच्छा करते हैं, और वैसे दोषयुक्त आहार की तलाश में घंटों तक घूमते रहते हैं, दूसरे वे साधक जो स्त्रियों में आसक्त होकर उनके हावभाव और हासविलास में मुग्ध रहते हैं, उन्हें पाने के लिए धन जुटाते हैं । जो आहार आदि साधु को देने के लिए बनाया जाता है, वह आधाकर्मी दोष कहलाता है। इन दोनों ही दुर्व्यसनों में फँसे हुए पुरुष आखिरकार संयमक्रिया में शिथिल होकर संसाररूपी कीचड़ में फँस जाते हैं । ऐसे व्यक्ति समाधिभाव से कोसों दूर हैं, और वे पापकर्म के सचय के कारण भविष्य में भी समाधि प्राप्त नहीं कर पाते । ७६५ मूल पाठ वेरा गिद्ध णिचयं करेति, इओ चुए स इहमट्ठदुग्गं 1 तम्हा उ मेहावी समिक्ख धम्मं, बरे मुणी सव्वउ विप्पक्के || || संस्कृत छाया वैरानुगृद्धो निचयं करोति, इतश्च्युतः स इदमर्थदुर्गम् 1 तस्मात्तु मेधावी समीक्ष्य धर्मं, चरेन्मुनिः सर्वतो विप्रमुक्तः ||६|| अन्वयार्थ ( वेराणु गिद्ध ) जो पुरुष प्राणियों के साथ वैर बाँधता है, ( णिचयं करेति ) वह पापकर्म की वृद्धि करता है । (इओ चुए स इहमठदुग्गं) वह मरकर नरक आदि दुःखदायी स्थानों में जन्म लेता है । ( तम्हाउ मेहावी मुणी ) इसलिए बुद्धिमान् मुनि ( धम्मं समिक्ख) धर्म का विचार करके ( सव्वउ विषमुक्के) समस्त बन्धनों से मुक्त होकर संयम का निष्ठापूर्वक पालन करे । भावार्थ जो पुरुष प्राणियों की हिंसा करके उनके साथ वैर बाँध लेता है, वह पापकर्म की वृद्धि करता है तथा वह यहाँ से मरकर नरक आदि दुःखदायक स्थानों में जन्म लेता है । इसलिए विद्वान् मुनि अपने धर्म का विचार करके समस्त बन्धनों से मुक्त होकर एकमात्र संयम की साधना में संलग्न रहे । व्याख्या सर्वबन्धमुक्त मुनि अपने धर्म पर दृढ़ रहे इस गाथा में यह बताया गया है कि वैर बाँधने वाला सायक पापकर्म का संचय करके यहाँ और वहाँ दोनों जगह दुःख पाता है, अतः मुनि इन सब बन्धनों से दूर रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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