________________
कुशील - परिभाषा : सप्तम अध्ययन
६६६
इसका समाधान यह है कि अग्निस्पर्श से मुक्ति बताने वाले जो लोग मंत्र से पवित्र अग्नि के स्पर्श से सिद्धि बताते हैं, यह तो उनके मूर्ख मित्र ही मान सकते हैं । जैसे आरम्भजीवियों द्वारा अग्नि में डाली हुई चीज को वह भस्म कर देती है, वैसे ही अग्निहोत्रयों द्वारा डाली हुई चीज को भी वह भस्म कर डालती है । इसलिए offत्रयों और आरम्भजीवियों के अग्नि-कार्य में कोई विशेषता नहीं है । तथा वे जो कहते हैं - 'अग्निमुखा वै देवाः' देवों का मुख अग्नि है, यह कथन भी युक्तिरहित होने से वाणीविलासमात्र है ।
अन्त में १६वीं गाथा में इन दोनों मोक्षवादियों की मान्यता का सामान्य रूप से निराकरण करके शास्त्रकार उन्हें ज्ञान प्राप्त करके इन प्राणिघात जनक क्रियाओं से निवृत्त होने का अनुरोध करते हैं ।
सच तो यह है कि जल में अवगाहन करने या अग्नि में होम करने से मुक्ति मानने वालों ने यह बात जिस शास्त्र से ली है, उस शास्त्र की या शास्त्र वचनों की प्रमाणों और युक्तियों से जाँच-पड़ताल तो की नहीं है, यों ही अन्धश्रद्धावश मान ली है । क्योंकि युक्तियों और प्रमाणों से यही बात सिद्ध होती है कि इन कार्यों से सिद्धि नहीं मिलती, क्योंकि सचित्त जल में अवगाहन करने या अग्निहोत्र करने से अनेक जीवों का संहार होता है । अतः इस जीव संहारात्मक क्रिया से मोक्ष कैसे मिल सकता है ? वास्तव में वे इस वस्तुतत्त्व को नहीं जानते, इसलिए इन कर्मकाण्डों को धर्म समझकर प्राणियों (जल के एवं जलाश्रित अन्य त्रस प्राणियों का तथा अग्नि
एवं अग्नि के आश्रित अन्य त्रस स्थावर प्राणियों) का घात करते हुए पापकर्म करते रहते हैं । इसलिए शास्त्रकार उसका परिणाम बताते हैं- 'एहिति ते घायबुज्झमाणा ।' अर्थात् वे पूर्वोक्त तथ्य को न समझने के कारण प्राणिघात के कारण घात (संसार) को ही प्राप्त होता है । चातुर्गतिक संसार घात ( जिसमें प्राणिघात होता है, वह ) कहलाता है । क्योंकि जीवविनाश से विनाशकों को संसार ( भवभ्रमण) ही मिलता है, सिद्धि कथमपि नहीं मिलती ।
इसलिए जिज्ञासु और सद्-असद्विवेकपरायण पुरुषों से शास्त्रकार का अनुरोध है कि पहले तो वे हमारे सिद्धान्तों का जिज्ञासापूर्वक भलीभाँति ज्ञान प्राप्त करें, तदनन्तर उस पर ठण्डे दिल-दिमाग से विचार करें, और यह बात निश्चित समझ लें कि संसार में सभी प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख किसी को भी प्रिय नहीं है । अपने समान त्रस और स्थावर प्राणियों में सुख-दुःख की चेतना विद्यमान है | अतः
स-स्थावर प्राणियों के घात से उन्हें दुःख ही होगा, और दुःख देने से कदापि मोक्ष - सुख नहीं मिल सकता। इसलिए त्रस स्थावर प्राणियों की हिंसा निष्पन्न हो, ऐसे किसी भी कर्मकाण्ड से मोक्ष या स्वर्गादि सुख नहीं मिल सकता। इस पर गहराई से विचार करके धर्म के नाम पर प्रचलित हिंसा कर्मों को छोड़ देना चाहिए ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org