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________________ सूत्रकृतांग सूत्र अर्थात्-~-इसी प्रकार सत्यवादी साधक काने (एक आँख वाले) को काना न कहे, नपुंसक को नपुंसक न कहे, तथा रोगिष्ठ को रुग्ण न कहे और चोर भी को चोर न कहे । मतलब यह कि किसी के दिल को दुःखित करने की दृष्टि से चाहे सच्ची बात ही कही गई हो, फिर भी उसके पीछे हिंसा का पुट होने से वह सत्य वास्तव में सत्य नहीं कहलाता । कहा भी है लोकेऽपि श्रू यते वादो, यथा सत्येन कौशिकः । पतितो वधयुक्त न, नरके तीव्रवेदने । अर्थात्---जगत् में भी यह बात सुनी जाती है कि कौशिक मुनि ने सच्ची बात तो कही, किन्तु वह प्राणिवधकारक थी, इसलिए उस पापयुक्त वचन के फल स्वरूप वे मरकर तीव्रवेदना वाले नरक में गए। तथैव नवविध ब्रह्मचर्यगुप्तियों से युक्त ब्रह्मचर्य तप ही समस्त तपों से बढ़कर है, यह बात भी अनुभवसिद्ध है। अन्य शास्त्रों में भी कहा है --- 'ब्रह्मचर्य परं तपः' ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट तप है। - इसी तरह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी लोक में सर्वोत्कृष्ट दान (अभयदान), सर्वोत्कृष्ट सत्य (निरवद्य वचन) एवं सर्वोत्कृष्ट तप (ब्रह्मचर्य) तथा उत्तम रूपसम्पत्ति, सर्वोत्कृष्ट शक्ति, एवं क्षायिक ज्ञान, दर्शन और शील से सम्पन्न होने के कारण लोकोत्तम हैं। मूल पाठ ठिईण सेटठा लवसत्तमा वा, सभा सुहम्मा व सभाण सेट्ठा । निव्वाणसेटठा जह सव्वधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्थि नाणी ।।२४॥ संस्कृत छाया स्थितीनां श्रष्ठा: लवसप्तमा वा, सभा सुधर्मा वा सभानां श्रेष्ठा । निर्वाणश्रेष्ठा यथा सर्वधर्माः, न ज्ञातपुत्रात्परोऽस्ति ज्ञानी ॥२४॥ अन्वयार्थ (ठिईण) जैसे स्थिति (आय) वालों में (लवसत्तमा सेट्ठा) लवसप्तम अर्थात् पाँच अनुत्तर विमानवासी देवता श्रेष्ठ हैं। (सुहम्मा सभा सभाण सेट्ठा) जैसे सुधर्मासभा समस्त सभाओं में श्रेष्ठ है। (जह सव्वधम्मा निवाण सेट्ठा) सब धर्मों में जैसे निर्वाण श्रेष्ठ धर्म है, इसी तरह (ण णायपुत्ता परमत्थि नाणी) ज्ञातपुत्र भगवान महावीर से बढ़कर कोई ज्ञानी नहीं है, अर्थात् महावीर स्वामी सब ज्ञानियों में श्रेष्ठ थे। भावार्थ जैसे सुखमय जीवन की सबसे लम्बी आयु (स्थिति) में सर्वार्थसिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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