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________________ नरकाधिकार : पंचम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक ६०६ व्याख्या सतत दुःख स्वभाव वाले अन्य नरक और पापी नारक श्री सूधर्मास्वामी श्री जम्बस्वामी आदि अपने शिष्यवर्ग से अन्य नरकों और नारकी जीवों के पाप के फल का यथातथ्य निरूपण करने की बात कहते हैं, उसका इस गाथा में उल्लेख है। नरक के सम्बन्ध में प्रथम उद्देशक में भी बहुत सी बातें बताई गई हैं । वहाँ भी नरक को सतत दु:खस्वभावयुक्त बताया गया है। और यहाँ पुनः उसी बात को दोहराया गया है- 'सासयदुक्खधम्मं ।' शाश्वत ---यानी आयुपर्यन्त रहने वाला, जिंदगीभर सतत दुःख देना ही जिसका स्वभाव है, ऐसे नरक को 'शाश्वतदुःखधर्मा' कहते हैं। नरक के जीवों को पद-पद पर, स्थान-स्थान पर इतना दुःख है कि उसे सुख का तो पता ही नहीं होता कि वह क्या चीज है ? क्योंकि नारकी जीवों को एक क्षणभर भी सुख का लेश नहीं प्राप्त होता। श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं----उस नरक का जैसा भी स्वरूप है, वैसा मैं आपसे कहूँगा, उसमें राईरत्तीभर भी घटाबढ़ाकर अथवा आरोपित करके नहीं कहूँगा। जो पुरुष बाल हैं—परमार्थ को नहीं जानते हैं, तथा कर्मफल का विचार न करके पापकर्म करते रहते हैं अथवा बुरे अनुष्ठान द्वारा ज्ञानावरणीयादि कर्मों का उपार्जन करते हैं वे पापी जीव पूर्वजन्मोपार्जित कर्मों का फल जिस प्रकार नरक में भोगते हैं, उसे मैं कहूँगा। मूल पाठ हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, उदरं विकत्तति खुरासिएहि । गिण्हित्त बालस्स विहत्त देहं, वद्धं थिरं पिछतो उद्धरंति ॥२॥ ___संस्कृत छाया हस्तेषु पादेषु च बद्ध वा, उदरं विकत यन्ति क्षुरप्रासिभिः । गृहीत्वा बालस्य विहतं देहं, बध्र स्थिरं पृष्ठता उद्धरन्ति ॥२।। अन्वयार्थ (हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं) परमाधार्मिक असुर नारकी जीवों के हाथों और पैरों को बाँधकर (खुरासिएहि) उस्तरे और तलवार के द्वारा (उदरं विकत ति) उसका पेट फाड़ देते हैं। (बालस्स) अज्ञानी नारकी जीवों के (विहत्त देह) लाठी आदि अनेक शस्त्रों के प्रहार से क्षत-विक्षत - घायल हुए या जर्जरित हुए शरीर को (गिण्हित्त) पकड़ कर (पिट्ठओ वद्ध थिरं उद्धरंति) उनकी पीठ की चमड़ी को जबरन खींच लेते हैं, उधेड़ लेते हैं। भावार्थ परमाधार्मिक असुर नारकी जीवों के हाथों और पैरों को बाँधकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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