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चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक
शीलभ्रष्ट पुरुष की दशा प्रथम उद्देशक में बताया गया था कि स्त्री-सम्पर्क करने से साधक किस प्रकार चारित्रभ्रष्ट हो जाता है। अब दूसरे उद्देशक में उस चारित्रभ्रष्ट पुरुष की दशा तथा चरित्रभ्रष्टता से होने वाले कर्मबन्ध का वर्णन किया जा रहा है। इस सम्बन्ध से दूसरे उद्देशक की प्रथम गाथा इस प्रकार है
मल पाठ ओए सया ण रज्जेज्जा, भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा । भोगे समणाणं सुणेह, जह भुंजंति भिक्खुणो एगे ॥१॥
संस्कृत छाया ओजः सदा न रज्येत, भोगकामी पुनर्विरज्येत । भोगे श्रमणानां शृणुत, यथा भुजति भिक्षव एके ॥१॥
अन्वयार्थ (ओए सया ण रज्जेज्जा) ओज अर्थात् राग-द्वषरहित अकेला साधु भोगों में सदा (कदापि) अनुरक्त न हो, चित्त न लगाए। (भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा) कदाचित् भोगों की चित्त में कामना प्रादुर्भूत हो जाय तो उसे ज्ञानबल द्वारा हटा दे, ज्ञान के द्वारा उससे विरक्त हो जाय। (भोगे समणाणं) भोगों का सेवन करने से श्रमणों की जो हानि या हँसी होती है, तथा (जह एगे भिक्खुणो भुंजंति सुणह) कई साधु किस प्रकार भोग भोगते हैं, उसे सुनो।
भावार्थ हे शिष्यो ! राग-द्वेष से रहित साधु कदापि भोगों में अनुरक्त न हो। यदि मोहोदयवश भोग-कामना की लहर मन में उठे तो ज्ञानबल से उसे वहीं रोक दे। भोगों के सेवन से साधुओं की कितनी हानि या हँसी होती है, तथा कई भिक्षु किस प्रकार भोग भोगते हैं, यह सुनो।
व्याख्या
भोगकामना ज्ञानबल से हटाए इससे पूर्वगाथाओं में बताया गया था कि साधु को कोई नारी किसी भी
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