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________________ सूत्रकृतांग सूत्र विश्लेषण किया है-'बालस्स मंदयं बीयं "पूयणकामो विसन्नेसी ।' आशय यह है कि राग-द्वेष से आकुल बुद्धि वाले अतत्त्वदर्शी मूढ़ साधक की यह दूसरी मूढ़ता है, एक तो अकार्य करने से चतुर्थ व्रत का भंग होता है, फिर वह उस अकार्य को स्वीकार न करके मिथ्याभाषण का पाप और करता है। एक तो उक्त मूढ़ ने धृष्टतापूर्वक असदनुष्ठान किया। फिर उसके विषय में दूसरे के पूछने पर वह उससे इन्कार करता हुआ कहता है-"राम-राम ! मैंने यह दुष्कर्म हगिज नहीं किया है। भला मैं ऐसा कुलीन और समझदार व्यक्ति इस प्रकार का दुष्कृत्य कैसे कर सकता हूँ ? मेरी भी तो इज्जत है।" वह इस प्रकार का मायाचार और दम्भ क्यों करता है ? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं - 'पूयणकामो विसन्नेसी ।' मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह तथ्य है कि मनुष्य चाहे कितना ही बुरा कर्म करता हो, पर वह समाज में सम्मान और शान के साथ जीना चाहता है, इसलिए वह अपनी तसवीर समाज में अच्छी प्रस्तुत करने हेतु एवं सदाचारी, त्यागी, तपस्वी, संयमी न होते हुए भी सदाचारी, त्यागो, तपस्वी और संयमी कहलाने हेतु मायाचार करता है। वह अपने पापकर्म को छिपाकर ऐसा दबदबा रखता है कि कोई उस पर उंगली न उठा सके, साथ ही वह अपनी असंयमीवृत्तिजनित दुष्कर्मों को छोड़ना भी नहीं चाहता। 'थोथा चना, बाजे घना' वाली कहावत को वह चरितार्थ करता है। मूल पाठ संलोकणिज्जमणगारं, आयगयं निमंतणेणाहंसु । वत्थं च ताइ ! पायं वा अन्नं पाणगं पडिग्गाहे ॥३०॥ संस्कृत छाया संलोकनीयमनगारमात्मगतं निमंत्रणेनाहुः । वस्त्रं च त्रायिन् ! पात्रंवा, अन्नं पानकं प्रतिगृहाण ॥३०॥ ___ अन्वयार्थ (संलोकणिज्ज) देखने में सुन्दर (आयगयं) आत्मज्ञानी (अणगारं) साधु को (निमंतणेणाहंसु) स्त्रियाँ निमंत्रण देती हुई कहती हैं--(ताइ) हे भवसागर से रक्षा करने वाले साधुवर ! (वत्थं च पायं वा अन्नं पाणगं पडिग्गाहे) वस्त्र, पात्र, अन्न और पान आप मेरे यहाँ से स्वीकार करें। भावार्थ देखने में सुन्दर साधु को स्त्रियाँ प्रार्थना करती हुई कहती हैं-हे भवसागरत्राता मुनिवर ! आप मेरे यहाँ पधार कर वस्त्र, पात्र और अन्नपान ग्रहण करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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