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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्वयार्थ (जोइउवगूढे जतुकुंभे) अग्नि के साथ आलिंगन किया हुआ लाख का घड़ा (आसुऽभितत्ते णासमुवयाइ) शीघ्र ही तपकर नष्ट हो जाता है, (एवित्थियाहिं संवासेण अणगारा) इसी तरह स्त्रियों के संसर्ग से अनगार साधक (णासमुवयंति) नाश को प्राप्त हो जाते हैं।
भावार्थ जैसै अग्नि को छता (आलिंगित किया) हुआ लाख का घड़ा चारों ओर से तपकर शीघ्र ही पिघल जाता है, इसी तरह अनगार पुरुष स्त्रियों के संसर्ग से शीघ्र ही संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं ।
व्याख्या स्त्री के स्पर्श से भी कितना अनर्थ !
स्त्री का संसर्ग तो दूर रहा, सिर्फ स्त्री के स्मरण मात्र से ही कितना अनर्थ होता है ? यह इस गाथा में बताया है । इस सम्बन्ध में पूर्व गाथा में उक्त दृष्टान्त द्वारा पुन: समझाया गया है । जैसे अग्नि में आलिंगित लाख का घड़ा शीघ्र ही सब ओर से तपकर पिघल कर नष्ट हो जाता है, इसी तरह ब्रह्मचारी साध भी स्त्री के स्मरणमात्र से यानी मन में विचारमात्र से ही संयम से भ्रष्ट हो जाता है ।
मूल पाठ
कुव्वंति पावगं कम्मं पुछा वेगेवमाहिसु । नोऽहं करेमि पावंति अंकेसाइणी ममेसत्ति ।।२८॥
संस्कृत छाया कुर्वन्ति पापकं कर्म पृष्ठा एके एवमाहुः । नाऽहं करोमि पापमिति अङ्कशायिनी ममैषेति ॥२८॥
अन्वयार्थ (एगे पावगं कम्मं कुठवंति) कई भ्रष्टाचारी साधुवेषी पापकर्म करते हैं, (पुट्ठा वा एवमाहंसु) किन्तु पूछने पर ऐसा कहते हैं कि (अहं पावं नो करेमि) मैं पापकर्म नहीं करता हूँ (एसा मम अंकेसाइणी त्ति) किन्तु यह स्त्री बचपन से मेरी अंकशायिनी रही है।
भावार्थ ' कई भ्रष्टाचारी साधुवेषधारी पापकर्म करते हैं, किन्तु आचार्य आदि के पूछने पर ऐसा कह देते हैं, "अजी ! मैं तो पापकर्म करता ही नहीं। यह स्त्री बचपन में मेरे अंक में सोती थी, इसी कारण यह ऐसा करती है।
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