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सूत्रकृतांग सूत्र
का त्याग करने का उपदेश दिया गया है। मोह में सर्वशिरोमणि है - स्त्रीजन्य मोह । अतः इसी सिलसिले में सबसे प्रथम गाथा में साधु को दीक्षा-बेला में ली हुई प्रतिज्ञा का स्मरण कराया गया है कि कोई उत्तम साधु जब दीक्षा ग्रहण करता है, तब माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र पुत्री तथा सास-ससुर आदि सम्बन्धियों के जितने भी पिछले सम्बन्ध थे, उन्हें छोड़कर माता-पिता आदि सम्बन्धों से रहित अकेला अथवा कषायरहित एवं ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सम्पन्न अथवा स्वहित यानी परमार्थ का अनुष्ठान करने वाला होकर ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि "मैं संयम का पालन करूंगा।" यह प्रतिज्ञा ही सर्वप्रधान है। उसी प्रतिज्ञा का एक अंश इस प्रकार है कि "कामवासना से बिलकुल निवृत्त होने के कारण मैं स्त्री-पशु-नपुंसकरहित पवित्र स्थानों में विचरण करूंगा।"
इस प्रतिज्ञांश को स्मरण कराने का हेतु यह है कि जब साधु इस प्रकार की प्रतिज्ञा ले लेता है, तब वह ऐसे स्थान में, ऐसे वातावरण में रात्रिनिवास नहीं कर सकता, जहाँ स्त्री रहती हो। तथा ऐसी गली, मोहल्ले में भी वह चल-फिर नहीं सकता, जहाँ दुश्चरित्र स्त्रियाँ रहती हों, और न ही सिर्फ स्त्रियों या अकेली एक स्त्री के पास बैठ सकता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य रक्षा की नौ गुप्तियाँ स्त्रीजन्य उपसर्ग को जीतने के सम्बन्ध में हैं। अतः इस प्रतिज्ञा को स्मरण कराने का आशय भी यही है कि साधु अपनी दीक्षाग्रहण के समय की हुई प्रतिज्ञा का स्मरण करके स्त्रीजन्य उपसर्ग से अपने आप को सुरक्षित रख सके। किन्तु ऐसे पवित्र, शान्त, स्त्रीपशु-नपुंसकरहित एकान्त स्थान में भी साधु के समक्ष अविवेकी स्त्रियों द्वारा कैसेकैसे उपसर्ग किये जाते हैं ? यह अगली गाथाओं में शास्त्रकार क्रमशः बताते हैं - अविवेकी स्त्रियों द्वारा साधु को शीलभ्रष्ट करने का प्रयत्न
इस गाथा में स्त्रीजन्य उपसर्ग का एक पहल दिया गया है । शास्त्रकार ने साधु को अविवेकिनी स्त्रियों द्वारा शीलभ्रष्ट करने की एक झाँकी प्रस्तुत की है। कई अविवेकिनी रमणियाँ किसी दूसरे कार्य के बहाने से शीलवान साधु के पास आकर बैठ जाती हैं अथवा इधर-उधर के पुराने गार्हस्थ्य या दाम्पत्य-संस्मरण याद दिलाकर साधक को शीलभ्रष्ट कर देती हैं या शीलभ्रष्ट होने योग्य बना देती हैं । जैसे नानाप्रकार के छल-कपट करने में निपुण, अनेक प्रकार कामविलासों को पैदा करने वाली, कामवासना की प्रबलता के कारण हिताहित-विचारशून्य मूढ़ मागध वेश्या आदि रमणियों ने कुलबालुक आदि तपस्वियों को शीलभ्रष्ट कर डाला था। इसी तरह रमणियाँ साधु को शीलभ्रष्ट कर डालती हैं। तात्पर्य यह है कि कई कामुक स्त्रियाँ भाई, पुत्र आदि के बहाने से साधु के पास आकर धीरे-धीरे उसे संयम से पतित कर देती हैं। किसी अनुभवी ने कहा है --
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