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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक ४७७ मृद्वी शय्या, प्रातरुत्थाय पेया; भक्तं मध्ये पानकं चापराह्न । द्राक्षाखण्डं शर्करा चाद्ध रात्र; मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ।। अर्थात् -भिक्षु को मुलायम शय्या पर सोना चाहिए और प्रातःकाल उठकर दुग्ध आदि पदार्थ पीना चाहिए । एवं दोपहर में भोजन (भात आदि का) करना चाहिए, सायंकाल में फिर कोई शरबत, दूध आदि पेय पदार्थ पीना चाहिए। इसके बाद आधीरात में द्राक्षा (किशमिश) और मिश्री खाना चाहिए। इस प्रकार की सुखपूर्वक दिनचर्या से अन्त में शाक्यपुत्र तथागत बुद्ध) ने मोक्ष देखा है।' "मनोज्ञ आहार, विहार आदि करने से चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न होती है। चित्त प्रसन्न होने पर एकाग्रता पैदा होती है और एकाग्रता से मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सुख से ही सुख की प्राप्ति (सातं सातेण विज्जती) होती है, परन्तु लोच आदि कायाकष्ट से कदापि मुक्ति नहीं हो सकती।' इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले बौद्ध आदि का पूर्वपक्ष प्रस्तुत करके शास्त्रकार ने इसका खण्डन किया है-'जे तत्य आरियं मग्गं.........."परमं च समाहिए।' १. बौद्धसाधुओं का यह आचार निश्चय ही उत्तरकालीन बौद्धभिक्षुओं का आचार रहा होगा। जिसका उल्लेख शीलांकाचार्य ने इस सूत्र की वृत्ति में विशेष रूप से किया है। यह नौवीं-दसवीं सदी के बौद्धजीवन का आँवों देखा वर्णन भी हो सकता है। उस समय बौद्धधर्म व दर्शन विकृत हो गया था। अतः यह आचार असम्भव नहीं। थेरगाथा में भविष्य के भिक्षुओं की आस्था व दिनचर्या का वर्णन मिलता है, जो इसी से मिलता-जुलता है। सम्भव है, थेरगाथा के प्रणयनकाल में बौद्ध भिक्षुओं में यह शिथिलता आ चुकी होगी, जिसकी चरमपरिणति का आभास यहाँ प्रस्तुत किया गया है। जैसा कि थेरगाथा में वर्णन है अञथा लोयनाथम्हि तिट्ठन्ते पुरिसुत्तमे । इरियं असि भिक्खून अञथा दानिदिस्सति ।। थेरगाथा ६२१ सब्बासपरिक्खीणा महाझायो महाहिता । निब्बुता दानि ते थेरा परित्ता दानि लादिसा ।। थेरगाथा ६२८ अर्थात्--- पुरुषोत्तम बुद्ध के रहते भिक्षुओं की चर्या दूसरी थी, पर अब कुछ और ही हो गयी है । पहले के भिक्षु अधिक नम्र और कर्मास्रव को दूर करते थे, महान् ध्यानी थे, स्वपरहित में तत्पर रहने थे। पापों से निवृत्त रहते थे। परन्तु इस समय वैसे भिक्षु बहुत ही अल्प हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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