________________
वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - तृतीय उद्देशक
३६७
धर्म का ही आचरण करने वाले थे, उन्होंने भी इन्हीं गुणों को मोक्षसाधक बताया है । मोक्षसाधन सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय है, अन्य नहीं ।
मूल पाठ
तिविहेव पाण मा हणे, आयहिते अणियाणसंवडे | एवं सिद्धा अनंतसो, संपइ जे य अणागयावरे
संस्कृत छाया
त्रिविधेनाऽपि प्राणान् माहन्यादात्महितोऽनिदानसंवृतः । एवं सिद्धा अनन्तशः सम्प्रति ये चाऽनागता अपरे अन्वयार्थ
॥२१॥
(तिविवि) मन, वचन और काया, इन तीनों से (पाण मा हणे ) प्राणियों का हनन नहीं करना चाहिए। तथा (आयहिते) अपने हित में प्रवृत्त एवं (अणियाणसंबुडे) स्वर्गादि सुखों के निदान ( भोगेच्छा ) से रहित गुप्त रहना चाहिए । ( एवं ) इस प्रकार (अनंतसो) अनन्तजीव (सिद्धा) सिद्ध - मुक्त हुए हैं तथा (संपइ जे य अवरे अणागया) वर्तमानकाल में और भविष्य में भी दूसरे अनन्त जीव सिद्ध-बुद्ध मुक्त होंगे।
॥२१॥
भावार्थ
साधक को मन-वचन-काया, इन तीनों योगों से प्राणियों का प्राणहनन नहीं करना चाहिए। तथा अपने हित में संलग्न रहकर, स्वर्गादि सुखभोगों के निदान से रहित होकर संयम पालन करना चाहिए। इस प्रकार
साधना से ही अतीत में अनंत जीवों ने मोक्ष प्राप्त किया है, वर्तमान काल में भी मोक्ष प्राप्त करते हैं तथा भविष्य में करेंगे ।
व्याख्या
कालिक मुक्त साधकों का मोक्षप्राप्ति में एकमत
पूर्वगाथाओं में प्रतिपादित मोक्षसाधक गुणों का निरूपण करके शास्त्रकार ने तीनों काल में मुक्तात्माओं का इस सम्बन्ध में एकमत बताया है । 'तिविहेवि जे व अणागयावरे ।' अर्थात् मन-वचन काया इन तीन योगों से तथा कृत-कारितअनुमोदित, इन तीन करणों से प्राणियों के दशविध प्राणों में से किसी भी प्राण का हनन नहीं करना चाहिए, यह प्रथम महाव्रत का स्वरूप है । उपलक्षण से यहाँ शेष सभी महाव्रतों का पालन समझ लेना चाहिए। आत्महित में संलग्न तथा मनवचन काया की तीन गुप्तियों से गुप्त-संवरयुक्त रहता है एवं स्वर्गादि सुखभोग के निदान से दूर रहता है, वह साधक अवश्य ही मुक्ति-सिद्धि प्राप्त करता है । पूर्वोक्त मार्ग का अनुष्ठान करके भूतकाल में अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं, भविष्य में भी पूर्वोक्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org