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का पालन, शुद्ध आहार : मोक्षमार्ग का कारण, साधु जीवहिंसामय कार्य में अनुमति न दे, हिंसाजनित पुण्यकार्यों में साधु पुण्य कहे या अपुण्य ? मुनि एकमात्र मोक्ष की साधना में जुटा रहे, कर्मपीड़ित जीवों के लिए यही मार्गरूप उत्तम द्वीप, परिपूर्ण अनुपम शुद्ध धर्म का उपादेशक, वे शुद्ध धर्म के तत्त्वज्ञान से काफी दूर हैं, भावमार्ग से दूर : क्यों और कैसे ?, मुनि साधुधर्म से मोक्ष तक की दौड़ लगाए, शान्तिरूप भावमार्ग ही समस्त तीर्थंकरों का आधार, भाव : मार्ग से विचलित न हो, संवत और शान्त साधक की अन्तिम साधना।
बारहवाँ अध्ययन : समवसरण : ८४६-८८५ समवसरण अध्ययन का संक्षिप्त परिचय, निक्षेप की दृष्टि से समवसरण के अर्थ, चार वाद के रूप में चार समवसरण, अज्ञानवादियों का स्वरूप, सर्वज्ञ सिद्धि के कारण अज्ञानवाद का खण्डन, विनयवादी और अक्रियावादी का मन्तव्य, अक्रियावादियों की रीति-नीति, एकान्तक्रियावादियों के रंग-ढंग, धर्मनायक तीर्थंकर आदि और उनकी शिक्षाएँ, यथार्थ क्रियावाद के प्ररूपक कौन और कैसे ? समवसरण के योग्य क्रियावादी साधु क्या करे ?
तेरहवाँ अध्ययन : याथातथ्य : ८८६-९१६ अध्ययन का संक्षिप्त परिचय, याथातथ्य शब्द का निर्वचन, याथातथ्य के निरूपण का अभिवचन, धर्मोपदेशक से धर्म पाकर उन्हीं की निन्दा करने वाले !, परम्परा से विरुद्ध व्याख्या, प्ररूपणा, श्रेष्ठ गुणों की अपात्रता का कारण, ऐसे मायावी लोग यथार्थ साधुता से दूर, कलहकारी साधक अत्यन्त दुखभागी, साधक के परस्पर विरोधी दो रूप, याथातथ्यचारित्र से सम्पन्न साधक, अभिमानी साधक : अपने ही मोक्ष के लिए बाधक, मूढ़मदान्ध साधक मुनीन्द्र पद में स्थित नहीं, कुल, गोत्र, जाति का गर्व न करे, वही सच्चा साधु, ज्ञान और चारित्र के सिवाय कोई भी वस्तु संसार-परिभ्रमण से बचा नहीं सकती, इतना उच्च त्याग होने पर भी मद त्याग न करने का फल, सुसाधु एषणा-अनैषणा का विचार करके शुद्ध भिक्षा ले, साधु के लिए साधना के कुछ सूत्र, साधु धर्मोपदेश देने से पहले और पीछे क्या सोचे ?, याथातथ्य धर्म का प्राणप्रण से पालन करे ।
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