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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक
संस्कृत छाया इहजीवितमेव पश्यत तरुणके (एव) वर्षशतस्य त्रु यति । इत्वरवासं च बुध्यध्वं गृद्धनराः कामेषु मूच्छिता: ॥८॥
अन्वयार्थ (इही इस लोक में (जीवियमेव) जीवन को ही (पासह) देखो। (वाससयस्स) सौ वर्ष की आयु वाले पुरुष का जीवन भी (तरुणए एव) युवावस्था में ही (तुट्टई) नष्ट हो जाता है। (इत्तरवासे य बुज्झह) इस जीवन को थोड़े दिन के निवास-तुल्य समझो। (गिद्धनरा) क्षुद्र या अविवेकी मनुष्य (कामेसु) कामभोगों में (मुच्छिया) मोहित-मूच्छित हो जाते हैं।
भावार्थ हे मनुष्यो ! इस मनुष्यलोक में पहले तो अपने ही जीवन को देखो। कई मनुष्य शतायु होकर भी युवावस्था में ही मरण-शरण हो जाते हैं । अतः इस जीवन को थोड़े काल के निवास के समान समझो। क्षुद्र या अविवेकी मनुष्य ही विषय भोगों में आसक्त होते हैं ।
व्याख्या
क्षणभंगुर जीवन में विषयासक्ति कैसी ? इस गाथा में शास्त्रकार जीवन की अनित्यता बताकर साधक को यह सोचने के लिए विवश कर देते हैं कि जब जीवन इतना क्षणभंगुर है, अनित्य है, ऐसी स्थिति में क्या कोई दूरदर्शी साधक विषयासक्त होकर अपने आप को नरकादि दुर्गतियों में डालना चाहेगा? कदापि नहीं। इस संसार में और वस्तुओं की बात तो जाने दें, जिस जीवन को तुम समस्त सुखों का स्थान मानते हो, उसको ही देखो, वह भी अनित्यता से युक्त है और प्रतिक्षण होने वाले आयुनाशरूपी मरण-- आवीचिमरण की दृष्टि से प्रतिक्षणविनाशी है। आयु दो प्रकार की होती हैसोपक्रमी और निरुपक्रमी। निरुपक्रमी आयुष्य बीच में टूटता नहीं, पूरा भोगने के बाद ही छूटता है, ऐसा आयुष्य नारकी, देवता तथा तीर्थकर आदि उत्तम पुरुषों का होता है। सोपक्रमी आयुष्य किसी न किसी निमित्त (लाठी, डण्डा, बन्दूक, तलवार, ऊपर से गिरने या चोट लगने आदि निमित्त) से या किसी अध्यवसान (अत्यन्त हर्ष, विषाद के कारण अति चिन्ता करना अध्यवसाय कहलाता है, इसके होने पर आयु नष्ट हो जाती है क्योंकि अतिचिन्ता से हृदयगति रुक जाती है । अथवा राग-द्वेषभय के कारण अतिचिन्ता उत्पन्न होती है, उससे भी आयु नष्ट हो जाती है ।) से सोपक्रमी आयु होने के कारण कोई शतायु पुरुष भी अकाल में ही काल-कवलित हो जाता है। अथवा आयुष्य क्षीण हो जाए तो भी युवावस्था
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