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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक मैंने परम्परा से सुना है। उन शब्दादि विषयों या मैथुन के सब अंगों से निवृत्त होकर जो संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त हैं, वे ही काश्यपगोत्रीय भगवान ऋषभदेव अथवा भगवान् महावीर स्वामी के धर्मानुयायी साधक हैं ।
व्याख्या
दुर्जेय कामनिवृत्त साधक ही अर्हद्धर्मानुयायी इस गाथा में श्रीसुधर्मास्वामी (गणधर) जम्बूस्वामी आदि अपने शिष्यों को अपने पूर्वज भगवान् महावीर से परम्परागत सुनी हुई अनुभव की बात कहते हैं - "इस संसार में पंचेन्द्रियविषय अथवा काम (मैथुन) दुर्जेय हैं, ऐसा मैंने परम्परा से सुना है।' गाथा में आए 'उत्तरा' शब्द का अर्थ यों तो प्रधान होता है, किन्तु लक्षणा से उसका अर्थ दुर्जेय किया गया है, क्योंकि काम संयमी पुरुषों को छोड़कर संसार के प्रायः सभी प्राणियों पर हावी हो जाता है। काम में पांचों इन्द्रियों के विषयों और मैथुनांगों, सभी का समावेश हो जाता है। जिसके लिए शास्त्रकार ने यहाँ 'गामधम्मा' शब्द का प्रयोग किया है। यों ग्राम का अर्थ इन्द्रियसमुह और धर्म का अर्थ विषय (स्वभाव) होता है। और इन्द्रियविषय ही काम हैं, इस कारण यही अर्थ सर्वसंगत है कि 'काम दुर्जेय है।'
'इह मे अणुस्सुयं - यह सब जो पहले कहा है और आगे कहा जाने वाला है वह सब आदितीर्थंकर श्रीऋषभदेवजी ने अपने पुत्रों से कहा था। इसके पश्चात् श्रीसुधर्मास्वामी आदि गणधरों से भगवान् महावीरस्वामी ने कहा था, इसलिए गणधर सुधर्मास्वामी जो अपने शिष्यों से कह रहे हैं कि 'इह मे अणुस्सुयं' ऐसा मैंने कर्णोपकर्ण से सुना है, यह कथन वास्तव में युक्तियुक्त है।
जंसी विरता""अणुधम्मचारिणो-- इस पंक्ति से श्रीसुधर्मास्वामी का तात्पर्य स्पष्ट परिलक्षित होता है कि यद्यपि काम दुर्जेय है, परन्तु किन आत्माओं के लिए ? जो अपने आत्मधर्म को नहीं जानते-समझते, अथवा जिन्होंने भगवान् महावीर के उत्तमधर्म को नहीं समझा, उन्हीं दुर्बल आत्माओं के लिए काम दुर्जेय है। परन्तु जिन्होंने भगवान् ऋषभदेव या भगवान् महावीर के धर्म को भलीभाँति समझ लिया है, जो संयमपालन के लिए समुद्यत हैं, अपनी आत्मशक्तियों को सर्वोपरि मानकर जो काम-भोगों से सर्वथा विरत हो चुके हैं, उनके (कामविजेता मुनि स्थूलभद्र आदि के) लिए काम-विजय दुष्कर नहीं है। इसीलिए यहाँ स्पष्ट कहा है-जो इन कामभोगों से सर्वथा विरत होकर संयमपालन के लिए उद्यत हैं, वे ही काश्यपगोत्रीय भगवान् ऋषभदेव या भगवान् महावीर के धर्मानुयायी साधक हैं अर्थात् वे ही अर्हद्धर्म का अनुष्ठान करने वाले साधक हैं। तात्पर्य यह है कि जो दुर्जेय समझे जाने वाले ग्रामधर्मों (कामों) से विरत हैं, वे ही अर्हद्धर्म को ग्रहण कर सकते हैं।
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