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समय : प्रथम अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक
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अथ च लोकवादियों ने जो यह कहा था कि ब्रह्मा सोते समय कुछ नहीं जानता है, जागते समय सब कुछ जानता है, सो यह बात भी कोई अपूर्व नहीं हैं, क्योंकि सभी प्राणी सोते समय कुछ नहीं जानते और जागते समय जानते हैं । यह कथन भी प्रमाणशून्य होने के कारण उपेक्षणीय है कि ब्रह्मा के सोने पर जगत् का प्रलय और जागने पर उदय (सृष्टि का सर्जन) है। वास्तव में इस जगत् में दिखाई देने वाले सभी इस पृथ्वी आदि स्वरूप वाले जगत् का एकान्त रूप से न तो उत्पाद होता है और न विनाश । द्रव्य रूप रो जगत् सदैव बना रहता है । कहा भी है-'न कदाचिदनीशं जगत्' यह जगत् कभी ऐसा नहीं था, ऐसी बात नहीं है। अर्थात् जगत् सदा ऐसा ही बना रहता है ।
इस प्रकार 'यह जगत (लोक) अनन्त है' इत्यादि लोकवाद को छोड़कर शास्त्रकार पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को गाथा के उत्तरार्ध में प्रस्तुत करते हैं'परियाए अस्थि से....' अर्थात् इस संसार में जो त्रस एवं स्थावर प्राणी हैं, वे अपनेअपने कर्म का फल भोगने के लिए अवश्य ही एक दूसरे पर्याय (गति एवं योनि) में जाते हैं। यह बात निश्चित और आवश्यक है। बसप्राणी अपने कर्म का फल भोगने के लिए स्थावरपर्याय में जाते हैं और स्थावरप्राणी त्रसपर्याय में जाते हैं । परन्तु वस दूसरे जन्म में भी बस ही होते हैं और स्थावर, स्थावर ही होते हैं, अर्थात् जो इस जन्म में जैसा है, वह दूसरे जन्म में भी वैसा ही होता है, ऐसा नियम नहीं है। त्रसजीव कर्मोदयवश स्थावर हो सकते हैं, स्थावरजीव भी शुभ कर्मोदय से त्रस हो सकते हैं।
इसलिए लोकवाद की अधिकांश मान्यताएँ एकान्त तथा युक्तिविरुद्ध होने से जानने, सुनने और अपनाने योग्य नहीं हैं ।
अब आगे की गाथाओं में शास्त्रकार अविरतिरूप कर्मबन्ध के कारण से बचने लिए अहिंसा, समता, कषायविजय , आदि स्वसमय का प्रतिपादन करते हैं---
मूल पाठ उरालं जगतो जोगं, विवज्जासं पलिति य । सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अओ सव्वे अहिंसिया ।।६।। एव खु नाणिणो सारं, जं न हिसइ किचन । अहिंसासमयं चेव, एतावतं वियाणिया ।।१०।।
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