________________
सूत्रकृतांग सूत्र
अब अगली गाथा में शास्त्रकार लोकवाद के मिथ्या विचार श्रवण करने का निषेध करते हुए कहते हैं
२६२
मूल पाठ
लोयवायं णिसामिज्जा, इहमेगेसिमाहियं । विवरीयपन्नसंभूयं, अन्नउत्त तयाणुयं ||५|| संस्कृत छाया
लोकवादं निशामयेत्, इहैकेषामाख्यातम् । विपरीतप्रज्ञासम्भूतमन्योक्तं तदनुगम्
अन्वयार्थ
( इहं ) इस लोक में ( एगेस) किन्हीं लोगों का ( आहिये) कथन है कि ( लोवा) पौराणिकों की बहुचर्चित अतिप्रचलित पुराणकथा या पौराणिकसिद्धान्त या लौकिक लोगों द्वारा कही हुई बातें ( णिसामिज्जा ) सुनना चाहिए । किन्तु (विवयपत्रसंभूयं ) वस्तुतः पौराणिकों का सिद्धान्त विपरीतबुद्धि से रचित है तथा (अन्नउत्त तथाणुयं) अन्य अविवेकियों ने जो कहा है, उसी का अनुगामी, यह लोकवाद है ।
।।५।।
भावार्थ
इस जगत् में कुछ लोगों का कहना है कि लोकवाद - पौराणिक कथा या सिद्धान्त को सुनना चाहिए, किन्तु यह लोकवाद परमार्थ से विपरीत बुद्धि द्वारा रचित है । दूसरे अविवेकियों ने जो अर्थ बतलाया है, उसी का अनुसरण करने वाला यह लोकवाद है ।
व्याख्या
लोकवाद : कितना हेय, ज्ञेय व कितना उपादेय ?
शास्त्रकार ने इस गाथा में बहुचर्चित लोकवाद की मीमांसा की है । लोकवाद क्या है ? उसका आविर्भाव कैसे संयोगों में हुआ है ? क्या वह हेय है, ज्ञय है अथवा उपादेय है ?
Jain Education International
वस्तुतः लोकवाद उस युग में प्रचलित पौराणिक मान्यताएँ हैं, जिनमें लोकपरलोक के सम्बन्ध में, तथा मृत्यु के बाद के रहस्य के सम्बन्ध में तथा ब्राह्मण, कुत्ता, गाय आदि प्राणियों के सम्बन्ध में आश्चर्यजनक, विसंगत एवं ऊटपटाँग
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org