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समय : प्रथम अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक
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'विऊ दत्त सणं चरे' का मतलब है--- विद्वान् एवं संयमपालन करने में निपुण विवेकी मुनि दत्त यानी दूसरे (पृहस्थ) के द्वारा बदले की भावना के विना केवल कल्याणबुद्धि से जो आहार दिया जाय, उसी को गवेषणापूर्वक प्रहण करे। इस उपदेश के द्वारा यहाँ १६ प्रकार के उत्पाददोषों का परिहार करने की बात सूचित की गयी है।
पीढ़ा, निसैनी, सीढ़ी या स्टल आदि लगाकर ऊपर, नीचे या तिरछी रखी हुई वस्तु को निकालकर साधु को देना, मालापहृतदोष कहलाता है । (१४) अच्छिज्जे-किसी दुर्बल से बलात् छीनकर या दवाब डालकर जबरन साधु को आहार दिलाना या देना आच्छेद्य दोष कहलाता है। (१५) अणिसिठे—दो या अधिक मनुष्यों के साझे की वस्तु उस साझेदार की अनुमति के बिना साधु को दे देना अनिःसृष्टदोष कहलाता है। (१६) अज्झोवरएसाधुओं को गाँव में पधारे हुए जानकर आंधन में अधिक चावल आदि डाल देना अध्यवपूरकदोष कहलाता है। ये १६ दोष प्रायः गृहस्थ दाता के निमित्त
से लगते हैं। १. सोलह प्रकार के उत्पाददोष होते हैं, जो साधु की असावधानी से, साधु के स्वयं के निमित्त से लगते हैं । वे इस प्रकार हैं---
धाई दुई निमित्त आजीव वणीमगे तिपिच्छाय । कोहे माणे माया लोभे ये हवंति दस एए ॥११॥ पुस्विपच्छासंस्थव, विज्जा मते य चुण्णजोगे य ।
उप्पायणाइदोसा सोलसमे मूलकम्मे य ।।२।। (१) धाई ---धात्री, धाय का काम करके आहार लेना धात्रीदोष है। (२) दुई-गृहस्थों का सन्देश पहुँचाना आदि दूती या दूत का कार्य करके आहार लेना दूती या दौत्यदोष है। (३) निमित्त --- भूत, भविष्य, वर्तमान का लाभालाभ एवं जीवन-मरण आदि का हाल बताकर आहार लेना निमित्तदोष कहलाता है। (४) आजीव-अपनी जाति, कुल आदि प्रकट करके या किसी प्रकार की आजीविका (हुन्नर) सिखाकर आहार लेना आजीवदोष है। (५) वणीनगेभिखारी या कंगाल के समान दीनता बताकर आहार लेना वनीपकदोष कहलाता है । (६) तिगिच्च्या --रोगी की चिकित्सा करके आहार लेना चिकित्सादोष कहलाता है। (७) कोहे-क्रोध करके आहार आदि लेना क्रोधदोष कहलाता है। (5) माण-अभिमान के साथ आहार लेना मानदोष है। (६) माया---कपटपूर्वक या वेष बदलकर आहार लेना मायादोष है । (१०) लोभ---लोभ करके या लोभ दिखाकर अधिक या सरस आहार लेना
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