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________________ सूत्रकृतागसूत्र इसी प्रकार की कुछ-कुछ मान्यता बौद्धधर्म के एक सम्प्रदाय की तथा कुछ अन्य सम्प्रदायों की है । उनका कथन है कि सुगत (बुद्ध) आदि देव मोक्षावस्था को प्राप्त करके भी अपने शासन (संघ) का लोप या तिरस्कार देखकर उसके उद्धारार्थं फिर से संसार में अवतार लेते हैं । जैसा कि उन्होंने कहा है २.३४ ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ॥ - धर्मतीर्थ के प्रवर्तक ज्ञानी तीर्थंकर (अवतार) परमपद (मोक्ष) को प्राप्त करके भी अपने तीर्थ (संघ) की अवनति या तिरस्कार देखकर पुनः संसार में लौट आते हैं । उनके संसार में वापस लौटकर आने के मूलपाठ में दो कारण बताये गये है - 'किड्डापदो सेणं'; अर्थात क्रीड़ा और प्रद्वेष ये दो ही कारण मुक्त एवं शुद्ध आत्मा के पुनः संसार में लौटने के हैं । क्रीड़ा का अर्थ यहाँ प्रमोद या हर्ष किया गया है, जो राग का सूचक है और प्रद्वेष का अर्थ द्वेष किया गया है । परन्तु कीड़ा का एक और अर्थ प्रचलित है-लीला । अवतारवादी लोगों का यह मत है कि जब-जब संसार में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होने लगती है, तब-तब भगवान अवतार लेते हैं, अपनी लीला दिखाने के लिए। उस समय सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों के नाश के लिए वे ऐसी लीला भी करते हैं । ऐसी लीला में, जबकि वे दुष्टों का संहार करते हैं और जो उनका भक्त होता है, उसकी रक्षा के लिए हर सम्भव प्रयत्न करते हैं, तो उनमें किंचित् राग-द्वेष भी सम्भव है । जो हो, अवतारवाद भगवान् भक्तों के उद्धार और दुष्टों के संहार के लिए संसार में जन्म (अवतार) लेते हैं । इसी मुक्त के पुनरागमनवाद के सम्बन्ध में अगली गाथा में शास्त्रकार पुनः कहते हैं मूल पाठ इह संडे मुणी जाए, पच्छा होइ अपावए । विडम्बु जहा भुज्जो, नीरयं सरयं तहा ॥ १२ ॥ संस्कृत छाया इह संवृतो मुनिर्जातः पश्चाद्भवत्यपापकः । विकटाम्बु यथा भूयो नीरजस्कं सरजस्कं तथा ॥ १२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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