________________
२३२
अन्वयार्थ
(इ) इस जगत् में ( एगेस) कितने ही दार्शनिकों का मत है कि (शुद्ध) कर्ममलरहित विशुद्ध ( अपावए) पाप से ( आया) आत्मा (पुणो ) पुनः (किड्डापदोषेणं) रागद्वेष के ( अवरज्झई) बंध जाता है।
सूत्रकृतांग सूत्र
( आहियं ) कथन -
भावार्थ
इस जगत् में कुछ ( त्रैराशिक, आर्यसमाज, वैष्णव, बौद्ध आदि ) भतवादियों का कथन है कि कर्मकलंक से रहित निष्पाप शुद्ध आत्मा भी क्रीड़ा (लीला ) या रागद्वेष के कारण पुनः कर्मबन्धन से बँध जाता हैकर्मरज से रिलष्ट हो जाता है ।
Jain Education International
रागद्वेष से रहित कारण ( तत्थ ) वहीं
व्याख्या
निष्पाप शुद्ध मुक्त आत्मा पुनः कर्म के कटघरे में
'सुद्ध अपावए आया' - इस गाथा में शास्त्रकार आत्मा की एक विचित्र ववस्था को मानने वाले राशिक, वैष्णव बौद्ध, आर्यसमाज आदि मतवादियों के भत का निरूपण करते हुए कहते हैं कि कुछ मतवादियों का यह कहना है कि आत्मा की तीन अवस्थाएँ हैं । पहली अवस्था है रागद्वेप से लिप्त कर्मबन्धनयुक्त, पापसहित अशुद्ध आत्मा । किन्तु उस अवस्था से छूटने के लिए कुछ विशिष्ट आत्माएँ कर्मबन्धनों के कारणों को दूर करने हेतु अहर्निश सम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्र-तप में पुरुषार्थ करती हैं, और उन आत्माओं को दूसरी निष्पाप अवस्था प्राप्त हो जाती है । वे मनुष्य जन्म में रहते हुए शुद्ध, निष्पाप होकर कर्मों से सर्वथा रहित होकर मोक्ष में पहुँच जाते हैं । इसके बाद आत्मा की एक तीसरी अवस्था और आती है, जब वह शुद्ध निप्पाप आत्मा पुनः क्रीड़ा और राग-द्व ेष के कारण कर्मरज से लिप्त हो जाता है । इस प्रकार आत्मा की ये तीन अवस्थाएँ होती हैं, इसलिए उन्हें राशिक के नाम से पुकारा जाता है । इस शास्त्र के वृत्तिकार श्री शीलांकाचार्य उन्हें गोशालक मतानुयायी कहते हैं ।
For Private & Personal Use Only
grt किड्डापदोसेणं सो तत्थ अवरज्झई- - प्रश्न होता है कि जो आत्मा एक बार शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, कर्मकलंकरहित, निष्पाप हो गया है, वह पुन: रागद्वेष में क्यों फँसता है ? क्या कारण है पुनः कर्मरज से श्लिष्ट होने का ? इसमें तो प्रायः सभी भारतीय दर्शन एकमत हैं कि जो आत्मा शुद्ध होकर मोक्ष में चला गया है, वह पुन: लौटकर नहीं आता । जैनदर्शन में तो स्पष्ट बताया गया है कि जिसका
www.jainelibrary.org