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एते उतउ आयाणा जेहि कीरइ पावगं एवं भावविसोहीए निव्वाणमभिगच्छइ
संस्कृत छाया
सन्तीमानि त्रीण्यादानानि यैः क्रियते पापकम् । अभिक्रम्य च प्र ेष्य च मनसाऽनुज्ञाय
सूत्रकृतांग सूत्र
॥२६॥
एतानि तु त्रीण्यादानानि यैः क्रियते पापकम् । एवं भावविशुद्धया तु निर्वाणमभिगच्छति ||२७|
अन्वयार्थ
(इमे) ये ( आगे कहे जाने वाले) (तउ) तीन ( आयाणा) कर्मों के आदानग्रहण (बंध) के कारण (संनि) हैं, (हि) जिनसे ( यावग ) पाप कर्म (कीरइ ) किया जाता है | ( अभिकम्माय) किस प्राणी को मारने के लिए अभिक्रम (आक्रमण के लिये उद्यत ) करके, (पेसाथ) तथा किसी प्राणी को मारने के लिये नौकर आदि किसी को प्रेषित – भेजकर (मणसा अणुजाणिवा ) एवं मन से अनुज्ञा देकर ।
।
॥२७॥
( एते उ ) ये पूर्वोक्त ( तउ) तीन ( आयाणा) कर्मबन्धन के कारण हैं, (जेहिं) जिनसे (पावगं ) पापकर्म (कोरइ) किया जाता है । ( एवं ) इस प्रकार ( भावविसोहीए) भावों की विशुद्धि से (निव्वाणं) निर्वाण मोक्ष को ( अभिगच्छइ) जीव प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ
ये तीन कर्म-बन्ध के कारण हैं, जिनसे पाप-कर्म किया जाता है । (१) किसी प्राणी को मारने के लिये स्वयं उस पर आक्रमण करना या प्रहार के लिये उद्यत होना, (२) नौकर आदि को भेजकर प्राणी का घात कराना, तथा (३) प्राणी का घात करने के लिये मन से अनुज्ञा - अनुमोदन करना
पूर्वोक्त तीन कर्म-बन्ध के कारण हैं, जिनसे पापकर्म किया जाता है । जहाँ ये तीन नहीं हैं, तथा जहाँ भाव की विशुद्धियाँ हैं, वहाँ कर्मबन्ध नहीं होता है, प्रत्युत निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
व्याख्या
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बौद्धमत में कर्मबन्ध के तीन आदान संति मे तर आयाणा – इन दोनों गाथाओं में शास्त्रकार ने बौद्धमतानुसार कर्मबन्ध के तीन प्रकार बताये हैं । चूँकि पूर्व गाथा में बौद्धमतानुसार चतुर्विधकर्म
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