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समय : प्रथम अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
उस कूटपाश आदि के बन्धन से युक्त विषम प्रदेश में अपने को ऐसे गिरा देता है अथवा स्वयं ही निढाल होकर गिर पड़ता है कि वहीं उसके पैरों में बन्धन डाल दिये जाते हैं जिससे वह न आगे खिसक सकता है, न पीछे और वहीं सड़-सड़ कर समाप्त हो जाता है । पाश से बिल्कुल निकल नहीं सकता तब सिवाय नाश (मृत्यु) के और कोई चारा नहीं रहता है । यह इस गाथा का तात्पर्य है ।
पूर्वोक्त चार गाथाओं में निरूपित मृग के दृष्टान्त को शास्त्रकार दान्तिक रूप में घटाते हैं—
मूल पाठ
एवं तु समणा एगे, मिच्छादिट्ठी अणारिआ । असंकियाई संकंति, संकियाई असंकिणो || १० ||
संस्कृत छाया
एवं तु श्रमणा एके, मिथ्यादृष्ट् योऽनार्य्याः । अशंकितानि शंकन्ते, शंकितान्यशंकिनः ॥ १० ॥
अन्वयार्थ
( एवं तु ) इसी प्रकार ( एगे) कई (मिच्छादिट्ठी) मिथ्यादृष्टि ( अणारिआ ) अनार्य (मणा ) श्रमण (असंकियाइ) शंकारहित अनुष्ठानों में ( संकति) शंका करते हैं तथा ( संकिया) शंका के योग्य अनुष्ठानों में (असंकिणो ) शंका नहीं करते हैं । भावार्थ
इसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण शंका के अयोग्य अनुष्ठानों में शंका करते हैं और शंकायोग्य अनुष्ठानों में शंका नहीं करते हैं ।
व्याख्या
अज्ञानी मृग के समान मिथ्यादृष्टि श्रमणों की मनोदशा
इससे पूर्व चार गाथाओं में जिस प्रकार अज्ञानी मृग की मनोदशा का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार इस गाथा में मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमणों की मनोदशा का चित्रण किया गया है। जैसे - अज्ञानी मृग बन्धन को न जान कर भुलावे में पड़ कर अनेक अनर्थों को प्राप्त करते हैं, इसी तरह पाषण्डविशेष को स्वीकार करने वाले कई श्रमण अनेक अनर्थों को प्राप्त करते हैं । यहाँ ऐगे कह कर कुछ एक श्रमणों के विषय में उल्लेख किया गया है। साथ ही उन श्रमणों के दो विशेषण यहाँ दिये हैं जिनसे उन्हें पहिचाना जा सकता है । वे श्रमण कैसे हैं ? इसके लिए
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