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________________ ( १८ ) इसका निर्माण किसने किया ? और कैसे हुआ ? क्योंकि लोक प्रत्यक्ष है | अतः उसकी सृष्टि के सम्बन्ध में जिज्ञासा का उठना सहज ही था । इसके सम्बन्ध में सूत्रकृतांग में एक मत का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि यह लोक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश रूप पाँच भूतों का बना हुआ है । इन्हीं के विशिष्ट संयोग से आत्मा का जन्म होता है और इनके वियोग से विनाश हो जाता है । यह वर्णन प्रथम श्रुतस्कंध, प्रथम अध्ययन और प्रथम उद्देशक की ७-८ गाथाओं में किया गया है। मूल में इस वाद का कोई नाम नहीं बताया गया । नियुक्तिकार भद्रबाहु ने इसे पञ्चभूतवाद कहा है, किन्तु सूत्रकृतांग के टीकाकार आचार्य शीलांक ने इसे चार्वाक मत बताया है। इस मत का उल्लेख दूसरे श्रुतस्कंध में भी है । वहाँ इसे पञ्च महाभूतिक कहा गया है । तज्जीव- तच्छरीरवाद इस वाद के अनुसार संसार में जितने शरीर हैं, प्रत्येक में एक आत्मा है । शरीर की सत्ता तक ही जीव की सत्ता है । शरीर का नाश होते ही आत्मा का भी नाश हो जाता है । यहाँ शरीर को ही आत्मा कहा गया है । इसमें बताया गया है। कि परलोकगमन करने वाला कोई आत्मा नहीं है । पुण्य और पाप का भी कोई अस्तित्व नहीं है । इस लोक के अतिरिक्त कोई दूसरा लोक भी नहीं है । मूलकार ने इस मत का कोई नाम नहीं बताया । नियुक्तिकार तथा टीकाकार ने इस मत को 'तज्जीव- तच्छरीरवाद' कहा है । सूत्रकृतांग के दूसरे श्रुतस्कंध में इस वाद का अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है । शरीर से भिन्न आत्मा को मानने वालों का खण्डन करते हुए वादी कहता है - कुछ लोग कहते हैं कि शरीर अलग है और जीव अलग है । वे जीव का आकार, रूप, गंध, रस और स्पर्श आदि कुछ भी नहीं बता सकते । यदि जीव शरीर से पृथक होता है, तो जिस प्रकार म्यान से तलवार, मूंज से are तथा मांस से अस्थि अलग करके बताई जा सकती है, उसी प्रकार आत्मा को भी शरीर से अलग करके बताया जाना चाहिए। जिस प्रकार हाथ रहा हुआ आँवला अलग प्रतीत होता है तथा दही में से मक्खन, तिल में तेल, ईख में रस एवं अरणि में से आग निकाली जाती है, इसी प्रकार आत्मा भी शरीर से अलग प्रतीत होता, पर ऐसा होता नहीं । अतः शरीर और जीव को एक मानना चाहिए | तज्जीव- तच्छरीरवादी यह मानता है कि पाँच महाभूतों से चेतन का निर्माण होता है । अत: यह वाद भी चार्वाकवाद से मिलता-जुलता ही है । इस प्रकार के वाद का वर्णन प्राचीन उपनिषदों में भी उपलब्ध होता है । एकात्मवाद की मान्यता जिस प्रकार पृथ्वी - पिण्ड एक होने पर भी पर्वत, नगर, ग्राम, नदी एवं समुद्र आदि अनेक रूपों में प्रतीत होता है, इसी प्रकार यह समस्त लोक ज्ञान-पिण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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