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सूत्रकृतांग सूत्र
वेदना-अनुभव को वेदनास्कन्ध कहते हैं । यह वेदना (अनुभूति) पूर्वकृत कर्मविपाक से (कर्मफल के सुखादि रूप से) होती है। जैसे कि एक बार स्वयं तथागत भिक्षा के लिये जा रहे थे, तब उनके पैर में काँटा गड़ जाने पर उन्होंने कहा था
इत एकनवतौ कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः ।
तत्कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ! ॥ हे भिक्षुओ! आज से ६१वें कल्प में मेरे द्वारा शक्ति (छुरी) से एक पुरुष का वध हुआ था, उसी कर्म के विपाक से आज मेरे पैर में काँटा लगा है। रूपविज्ञान, रसविज्ञान आदि विज्ञान को 'विज्ञानस्कन्ध' कहते हैं। संज्ञा के कारण वस्तु विशेष के बोधक शब्द को 'संज्ञास्कन्ध' कहते हैं । २ जैसे गौ, अश्व आदि संज्ञाएँ हैं । ये संज्ञाएँ वस्तु के सामान्य धर्म को निमित्त मानकर व्यवहार में आती हैं। पुण्य-पाप आदि धर्म-समुदाय को 'संस्कारस्कन्ध' कहते हैं । इसी संस्कार के प्रबोध से पहले जाने पर-पदार्थ का स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि होते हैं। इन रूप आदि पंचस्कन्धों से भिन्न सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञानादि का आधारभूत आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है । न स्कन्धों से भिन्न आत्मा का प्रत्यक्ष से ही अनुभव होता है। उस आत्मा के साथ अविनाभावी (नियत) सम्बन्ध रखने वाला कोई निर्दोष चिन्ह भी गृहीत नहीं होता, जिससे कि अनुमान द्वारा आत्मा सिद्ध हो सके । प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही अविसंवादी (सत्य-सत्य बताने बाले) प्रमाण हैं। इनसे भिन्न कोई तीसरा प्रमाण नहीं है । अतः पंचस्कन्धों से भिन्न आत्मा नहीं है। इस प्रकार बालक के समान पदार्थज्ञानरहित बौद्धगण कहते हैं। बौद्धमान्य ये पाँचों स्कन्ध क्षणयोगी (क्षणिक) हैं। एक क्षण तक ही रहते हैं। दूसरे क्षण में विनष्ट हो जाते हैं । परमसूक्ष्म काल को क्षण कहते हैं । उस क्षण के साथ सम्बन्ध को 'क्षणयोग' कहते हैं। जो पदार्थ उस क्षण के साथ सम्बन्ध रखता है, उसको 'क्षणयोगी' कहते हैं। क्षणमात्र स्थायी पदार्थ को क्षणयोगी कहते हैं । ये पाँचों स्कन्ध क्षणयोगी हैं। ये स्कन्ध न तो कूटस्थनित्य (सदा एक से रहने वाले) हैं, और न ही कालान्तर स्थायी (दो चार क्षण तक ठहरने वाले) हैं । ये तो सिर्फ एक ही क्षण ठहरते हैं, दूसरे क्षण में समूल नष्ट हो जाते हैं। स्कन्धों के क्षणिकत्व को सिद्ध करने के लिए अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-'स्कन्ध क्षणिक हैं, क्योंकि सत् हैं । जो-जो सत् होता है, वह-वह
१. यं किंचि वेदयितलक्खणं सव्वं तं एकतोकत्वा वेदनाक्खंधो वेदितव्वो।
---विसुद्धि २. यं किंचि संजाननलक्खणं सव्वं तं एकतोकरवा सक्खंधो वेदितव्यो।
-विसुद्धि
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