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कृति नहीं, किन्तु संकलन है। दूसरा मत यह है कि उत्तराध्ययन सूत्र भी चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु की ही कृति है। कल्पसूत्र, जिसकी पर्युषणा कल्प के रूप में वाचना की जाती है, वह भी चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु की ही कृति है। इस प्रकार अन्य अंगबाह्य आगमों के सम्बन्ध में भी कुछ तो काल निर्णय हो चुका है और कुछ होता जा रहा है।
अंगों का क्रम एकादश अंगों के क्रम में सर्वप्रथम आचारांग है । आचारांग को क्रम में सर्वप्रथम स्थान देना तर्क-संगत भी है एवं परम्परा प्राप्त भी है। क्योंकि संघ व्यवस्था में सबसे पहले आचार की व्यवस्था अनिवार्य होती है । आचार-संहिता की मानवजीवन में प्राथमिकता रही है। अतः आचारांग को सर्वप्रथम स्थान देने में प्रथम हेतु है उसका विषय, दूसरा हेतु यह है कि जहाँ-जहाँ अंगों के नाम आए हैं, वहाँ-वहाँ मूल में अथवा वृत्ति में आचारांग का नाम ही सबसे पहले आया है । आचारांग के बाद जो सूत्रकृतांग आदि नाम आए हैं, उनके क्रम की योजना किसने किस प्रकार की इसकी चर्चा के हमारे पास उल्लेखनीय साधन नहीं है। इतना अवश्य है कि सचेलक एवं अचेलक दोनों परम्पराओं में अंगों का एक ही क्रम है । सूत्रकृतांग सत्र में विचार-पक्ष मुख्य है और आचार-पक्ष गौण, जबकि आचारांग में आचार की मुख्यता है और विचार की गौणता । जैन-परम्परा प्रारम्भ से ही एकान्त विचार. पक्ष को और एकान्त आचार-पक्ष को अस्वीकार करती रही है। विचार और आचार का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत करना ही जैन-परम्परा का मुख्य ध्येय रहा है। यद्यपि आचारांग में भी परमत का खण्डन सूक्ष्म रूप में अथवा बीज रूप में विद्यमान है, तथापि आचार की प्रबलता ही उसमें मुख्य है। सूत्रकृतांग में प्रायः सर्वत्र परमत का खण्डन और स्वमत का मण्डन स्पष्ट प्रतीत होता है। सूत्रकृतांग की तुलना बौद्ध-परम्परा मान्य अभिधम्म पिटक से की जा सकती है, जिसमें बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित ६२ मतों का यथाप्रसंग खण्डन करके अपने मत की स्थापना की है। सूत्रकृतांग सूत्र में स्वसमय और पर-समय का वर्णन है। वृत्तिकारों के अनुसार इस में ३६३ मतों का खण्डन किया गया है। समवायांग सूत्र में सूत्रकृतांग सूत्र का परिचय देते हुए कहा गया-इसमें स्वसमय, परसमय, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष आदि तत्त्वों के विषय में कथन किया गया है। १८० क्रियावादी मतों की, ८४ अक्रियावादी मतों की, ६७ अज्ञानवादी मतों की एवं ३२ विनयवादी मतों की, इस प्रकार सब मिलाकर ३६३ अन्ययथिक मतों की परिचर्चा की है। श्रमण सूत्र में सूत्रकृतांग के २३ अध्ययनों का निर्देश हैप्रथम श्रुतस्कंध में १६, द्वितीय श्रु तस्कंध में ७ । नन्दीसूत्र में कहा गया है कि सूत्र
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