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समय : प्रथम अध्ययन-प्र
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अब शास्त्रकार तज्जीव-तच्छरीरवादी और अकारकवादी इन दोनों मता का मिथ्या मान्यता का खण्डन करते हुए कहते हैं ।
मल पाठ जे ते उ वाइणो एवं, लोए तेसि कओ सिया ? । तमाओ ते तमं जंति, मंदा आरंभनिस्सिया ॥१४॥
___ संस्कृत छाया ये ते तु वादिन एवं, लोकस्तेषां कुतः स्यात् ? । तमसस्ते तमो यान्ति, मन्दा आरम्भनि:श्रिताः ।।१४।।
अन्वयार्थ (जे ते उ) जो वे, (वाइणो) तज्जीव-तच्छरीरवादी एवं अकारकवादी (एवं) इस प्रकार कहते हैं, (तेसि) उनके मत में, (लोए) यह लोक (कओ सिया) कैसे हो सकता है ? (मंदा) मूढ़ (आरंभनिस्सिया) आरंभ में आसक्त (ते) वे. वादी (तमाओ) एक अज्ञान अंधकार से निकलकर (तमं) दूसरे अन्धकार को (जंति) प्राप्त करते हैं।
भावार्थ जो लोग आत्मा को अकर्ता एवं निष्क्रिय कहते हैं, उन वादियों के मत में यह चतुर्गतिक संसार या परलोक कैसे घटित हो सकता है ? वस्तुत. वे मूर्ख हैं और आरंभ में आसक्त हैं । अतः वे एक अज्ञानतमिस्रा से निकल कर दूसरे अज्ञानतम को प्राप्त करते हैं।
व्याख्या
तज्जीव-तच्छरीरवादी मत का निराकरण शास्त्रकार ने इससे पूर्व दो गाथाओं में क्रमश: तज्जीव-तच्छरीरवाद एवं अकारकवाद का क्रमश: स्वरूप बताया है। अब इस गाथा में क्रमश: उन दोनों के मत के दूषण और मिथ्यात्व परिपोषण का निराकरण करते हैं। तज्जीव-तच्छरीरवादियों का कथन है कि 'शरीर से भिन्न आत्मा नहीं हैं। यह बात असंगत है, इस बात को सिद्ध करने वाला प्रमाण पाया जाता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है । 'प्रमाण अनुमान है, वह इस प्रकार है- 'यह शरीर किसी कर्ता द्वारा किया हुआ है, क्योंकि यह आदिवाला और नियत आकारवाला है। इस जगत में जो-जो पदार्थ
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