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________________ सूत्रकृतांग सूत्र : एक अनुचिन्तन [] श्री विजयमुनि शास्त्री वैदिक-परम्परा में जो स्थान वेदों का मान्य है, तथा बौद्ध परम्परा में जो स्थान पिटकों का माना गया है, जैन-परम्परा में वही स्थान आगमों का है। जैनपरम्परा, इतिहास और संस्कृति की विशेष निधि आगम-शास्त्र ही हैं । आगमों में जो सत्य मुखरित हुआ है, वह युग-युगान्तर से चला आया है, इसमें दो मत नहीं हो सकते । परन्तु इस मान्यता में जरा भी सार नहीं है कि उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है । भाव-भेद, भाषा-भेद और शैली-भेद आगमों में सर्वत्र टगोचर होता है | मान्यता - भेद भी कहीं-कहीं पर उपलब्ध हो जाते हैं । इसका मुख्य कारण है- समाज और जीवन का विकास । जैसे-जैसे समाज का विकास होता रहा, वैसे-वैसे आगमों के पृष्ठों पर विचार-भेद उभरते रहे हैं । आगमों की निर्वृत्तियों में, आगमों के भाष्यों में, आगमों की चूर्णियों में और आगमों की टीकाओं में तो विचार-भेद अत्यन्त स्पष्ट है । मूल आगमों में भी युगभेद के कारण से विचारभेद को स्थान मिला है और यह सहज था । अन्यथा, उनके टीकाकारों में इतने भेद कहाँ से प्रकट हो पाते । आगमों की रचना का काल आधुनिक पाश्चात्य विचारकों ने इस बात को माना है कि भले ही देवद्धिगणी ने पुस्तक लेखन करके आगमों के संरक्षण कार्य को आगे बढ़ाया, किन्तु निश्चय ही वे उनके कर्त्ता नहीं हैं । आगम तो प्राचीन ही हैं । देवद्धिगणी ने तो केवल उनका संकलन और संपादन ही किया है । यह सत्य है कि आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हैं, पर उस प्रक्षेप के कारण समग्र आगम का काल देवद्धिगणी का काल नहीं हो सकता । पूरे आगमों का एक काल नहीं हो सकता । सामान्य रूप में विद्वानों ने अंग आगमों का काल पाटलिपुत्र की वाचना के काल को माना है । पाटलिपुत्र की वाचना इतिहासकारों के अनुसार भगवान महावीर के परिनिर्वाण के बाद पंचम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के काल में हुई । और उसका काल है ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी का द्वितीय दशक | अतएव आगम का काल लगभग ईसापूर्व छठी शताब्दी से ईसा की पाँचवीं शती तक माना जा सकता है। लगभग हजार वर्ष अथवा बारह सौ वर्षों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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