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________________ आभार-दर्शन भगवान श्री महावीर के अमूल्य उपदेश आज जिस रूप में उपलब्ध हैं, उसे 'आगम' कहा जाता है । आगम कोई एक ग्रन्थ विशेष नहीं है, किन्तु जिनवाणी के संकलित स्थिर संग्रह को ही 'आगम' संज्ञा दी गई है। उसमें मुख्य रूप से महावीर की वाणी तथा अन्य स्थविर-गणधर आदि के उपदेश संकलित होते हैं । श्वेताम्बर स्थानक वासी जैन मान्यतानुसार वर्तमान में बत्तीस आगम प्रमाणस्वरूप माने गये हैं। उनमें सर्वप्रमुख है ग्यारह अंग आगम। अंग आगमों में आचारांग सूत्र प्रथम आगम है । प्रस्तुत सूत्रकृतांग सत्र द्वितीय अंग आगम है। आचारांग में आचारधर्म का अनेक दृष्टियों से वर्णन हुआ है । सूत्रकृतांग में दार्शनिक विवेचन अधिक है इसलिए इसे दर्शनशास्त्र का प्रमुख आगम कहा जाता है । स्थानकवासी परम्परा में आगम प्रकाशन का कार्य पिछली एक शताब्दी से हो रहा है । अनेक विद्वान मुनि और आचार्यों ने अपनी विशिष्ट प्रतिभा के बल पर गंभीर आगम वचनों का अनुवाद व विवेचन कर उसे सर्वजन सुबोध भाषा में रखने का प्रयत्न किया है। आचार्यों की इस पुनीत नाम गणना में पूज्य आचार्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज, पूज्य आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज तथा जैन धर्म दिवाकर पूज्य आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के शुभ नाम स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं। ___मेरे परदादागुरु आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज जैन आगमों के महान मर्मज्ञ, सरल व्याख्याकार और सुयोग्य संपादक थे। अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा के बल पर उन्होंने अनेकानेक आगमों पर हिन्दी भाषा में विस्तृत टीकाएँ लिखीं और अनेक दुर्लभ ग्रन्थों का सुन्दर सम्पादन किया। उनके असीम प्रयत्नों का ही यह सुफल है कि आज स्थानकवासी जैन श्रमणों में अनेक श्रमण प्राकृत-संस्कृत के अधिकारी विद्वान तथा आगमों के गंभीर ज्ञाता है और सुलेखक, संपादक एवं ओजस्वी वक्ता बनकर श्रमण वर्ग की गौरव गरिमा में चार चाँद लगा रहे हैं। पंडितरत्न प्राकृत भाषा के मर्मज्ञ श्री हेमचन्द्र जी महाराज स्व० आचार्य प्रवर के सुयोग्य शिष्य रत्न है और आप मेरे दादागुरु हैं। आपश्री की प्रेरणा व मार्गदर्शन से मैंने दो अक्षरों का बोध प्राप्त किया । आपश्री द्वारा किये गये अनुवाद एवं व्याख्या को मैंने अपनी शैली में ढालने का प्रयत्न किया है। व्याख्या को मैंने अपनी शैली में ढालने का प्रयत्न किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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