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________________ ७ सूत्रकृतांग सूत्र अतः पूर्वोक्त रीति से अन्वय-व्यतिरेक से विचार करने पर भूतों का चैतन्य नामक गुण सिद्ध नहीं होता । फिर भी जीवित शरीरों में चैतन्य गुण पाया जाता है, अतः परिशेष न्याय से वह आत्मा का ही गुण है, भूतों का नहीं । आप (लोकायतिक) ने पहले जो अनुमान प्रयोग किया था कि पृथ्वी आदि भूतों से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है क्योंकि उस आत्मा का बोधक कोई प्रमाण नहीं मिलता, और प्रमाण भी एकमात्र प्रत्यक्ष ही है, यह कथन भी 'वदतोव्याघात' जैसा है। एक तरफ आप कहते हैं कि प्रत्यक्ष के सिवाय हम किसी प्रमाण को नहीं मानते और दूसरी तरफ आप स्वयं अनुमान प्रमाण का प्रयोग कर रहे हैं। प्रमाण का लक्षण है ----अर्थ को जो अविसंवादी (ठीक-ठीक) रूप में बताता है किन्तु जो कुछ प्रत्यक्ष किया जाता है, उस प्रत्यक्ष को प्रमाण रूप सिद्ध करने के लिए, तथा दूसरों को बताने के लिए आपको अनुमान प्रमाण का सहारा लेना पड़ेगा। क्योंकि अपना प्रत्यक्ष तो अपने ही अनुभव में व अपनी ही बुद्धि में आता है, दूसरे की बुद्धि में नहीं आ सकता । ऐसा कोई साधन भी नहीं है, जिससे अपना प्रत्यक्ष दूसरे की बुद्धि में स्थापित किया जा सके । वाणी द्वारा समझाकर अपना प्रत्यक्ष दूसरे को बताया जाता है। उससे श्रोता को ज्ञान भी होता है। परन्तु वह ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है । वह तो शब्द सुनने से उसके अर्थ का ज्ञान है, उसे शब्दबोध कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान वह है, जो अपनी इन्द्रियों के द्वारा अपने अनुभव में आता है। वह अनुभव अपनी ही बुद्धि में स्थिर रहता है, दूसरे की बुद्धि में स्थापित नहीं किया जा सकता । इसीलिए प्रत्यक्ष ज्ञान गूंगे की तरह मूक होता है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण है, इस बात को प्रत्यक्षकर्ता ही जानता है, दूसरा पुरुष नहीं जानता। दूसरे पुरुष को अपने प्रत्यक्ष की प्रमाणता वाणी द्वारा कह कर समझाई जाती है। वह वाणी अनुमान के अंगस्वरूप पंचावयवात्मक वाक्य है। जैसे---"मेरा यह प्रत्यक्ष प्रमाण है, क्योंकि यह अर्थ को यथार्थ रूप में बताता है जैसा मेरा अनुभव किया हुआ पटप्रत्यक्ष । मेरे अनुभव किए हुए पटप्रत्यक्ष ने भी सत्य अर्थ को बताया था, इसी तरह यह घटप्रत्यक्ष भी सत्य अर्थ को बताता है । अत: सत्य अर्थ को बताने के कारण यह घटप्रत्यक्ष भी प्रमाण है।" इस प्रकार अपने प्रत्यक्ष की प्रमागता सिद्ध करने के लिए अनुमान का आश्रय लेना ही पड़ता है। दूसरी बात---'अनुमान प्रमाण नहीं है इसे सिद्ध करने के लिए भी अनुमान का सहारा लेकर अनुमान का खण्डन भी अनु १. 'अर्थाविसंवादकं प्रमाणम्' । २. 'इन्द्रियसन्निकर्षजं ज्ञानं प्रत्यक्षम्' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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