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आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन
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उसके मन-वचन-कायारूप कारण भी नष्ट हो जाते हैं, और वह कुछ भी कार्य (व्यापार) नहीं करता। ऐसी स्थिति में उसके ज्ञानावरणीय आदि नवीन कर्मबन्ध होने का कोई सवाल ही नहीं उठता। क्योंकि कारण का अभाव हो जाता है तो कार्य का अभाव स्वतः हो जाता है। इस प्रकार जब मुक्ति में पहुँचे हुए मुक्त पुरुष के कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाता है, तो फिर कर्मों के अभाव में संसार में पुनः कैसे आ सकता है, क्योंकि संसार कर्म का ही कार्य है। वास्तव में मुक्तजीव सभी संगों, संयोगों, आसक्तियों, बन्धनों, ग्रन्थियों एवं द्वन्द्वों से रहित होता है, उसके लिए अपनापराया कुछ भी नहीं होता, वह यदि अपना-पराया करने लगेगा तो पुनः रागद्वेष से लिप्त हो जाएगा। परन्तु मुक्त जीव रागद्वेष से सर्वथा मुक्त होता है। इसलिए उसे अपने तीर्थ की अवहेलना का कोई विचार ही नहीं आता।
अतः शास्त्रकार इस अकाट्य सिद्धान्त को प्रस्तुत करके जन्म-मरण से रहित होने का एक क्रम सूचित करते हैं कि जब आत्मगुणों से युक्त साधक आठ प्रकार के कर्मों, उनके कारणों और उनके फलों को भी जान लेता है, साथ ही वह कर्मक्षय (निर्जरा) करने के उपाय को भी भलीभांति जान लेता है, अथवा वह पुरुष कर्मों एवं उनके नामों या स्वरूपों को, या नाम शब्द उपलक्षण होने से कर्मों की प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेशों को भी अच्छी तरह से जान लेता है। इस प्रकार उन कर्मों को, उनकी निर्जरा के उपायों को, जानकर कर्मविदारण करने में समर्थ यह महान वीर पुरुष ऐसा पराक्रम करता है, जिससे वह फिर संसार में न जन्म लेता है, न मरता है। अर्थात् वह जन्ममरण से सर्वथा रहित हो जाता है। यहाँ कारण के अभाव से कार्य का अभाव बताया गया है, इसलिए जो लोग कहते हैं कि जगत्पति परम पुरुष का अविनाशी, ज्ञान, ऐश्वर्य, वैराग्य और धर्म ये चारों स्वभावतः अनादिसिद्ध हैं, इस मान्यता का खण्डन समझ लेना चाहिए। यह मत युक्तिहीन है ।
मूल पाठ ण मिज्जइ महावीरे, जस्स नत्थि पुरेकडं । वाउव्व जालमच्चेति, पिया हांसि इथिओ॥८॥
संस्कृत छाया न म्रियते महावीरो, यस्य नास्ति पुराकृतम् । वायुरिव ज्वालामत्येति, प्रिया लोकेष स्त्रियः ॥८॥
अन्वयार्थ (जस्स पुरेकर्ड नत्थि) जिसके पूर्वकृत कर्म नहीं हैं, (महावीरे ण मिज्जइ) वह महान् वीर पुरुष जन्मता-मरता नहीं है। (जालं बाउव्व लोगसि पिया इथिओ
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