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________________ नियुक्तियों में सूरप्रज्ञप्ति की नियुक्ति का उल्लेख है। किन्तु वह मलयगिरि के समय में अनुपलब्ध थी। उन्होंने अपनी टीका में पूर्वाचार्यों के मत का भी उल्लेख किया है।' निरयावलियाओ नाम-बोध प्रस्तुत आगम एक श्रुतस्कन्ध है । इस का प्राचीनतम नाम उपांग प्रतीत होता है । जम्बूस्वामी ने उपांग का क्या अर्थ है, यह प्रश्न पूछा । सुधर्मा स्वामी ने इसके उत्तर में कहा-उपांग के पांच वर्ग हैं -निरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा ।। 'उपांग' शब्द का बहुवचन में प्रयोग किया गया है। उपांग पांच वर्गों का एक श्रुतस्कन्ध है। इसलिए संभवत: बहुवचन का प्रयोग किया गया है। इसका मूल अंग कौन-सा है, इसके बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है । वर्तमान में प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध के लिए "उपांग' शब्द प्रचलित नहीं है। अभी 'उपांग' शब्द के द्वारा बारह आगमों का संग्रहण है। 'नन्दी' सूत्र की आगमसूची में 'उपांग' शब्द का उल्लेख नहीं है। वहां 'निरयावलिया' आदि पांचों स्वतंत्र आगम के रूप में उल्लिखित हैं । अनुमान किया जा सकता है कि 'नन्दी' सूत्र की रचना के उत्तरकाल में पांचों आगमों की एक श्रुतस्कन्ध के रूप में व्यवस्था की गई और श्रुतस्कन्ध का नाम 'उपांग' रखा गया। प्रो. विन्टरनित्ज के अनुसार ये पांचों आगम निरयावलिका के नाम से प्रसिद्ध थे। अंग और उपांग की व्यवस्था के समय से वे अलग-अलग गिने जाने लगे। 'निरयावलिया' का दूसरा नाम ‘कल्पिका' मिलता है। नंदी के कुछ आदर्शों में वह उपलब्ध है । आचार्य हरिभद्रसूरि और आचार्य मलयगिरि ने नंदी की वृत्ति में 'कल्पिका' का ही उल्लेख किया है।' यह संभावना की जा सकती है कि 'उदंगा' के प्रथम वर्ग का नाम 'कल्पिका' था, किन्तु नरक-परिणाम वाले कमों का वर्णन होने के कारण इसका दूसरा नाम 'निरयावलिका' रख दिया गया । इस प्रकार प्रथम वर्ग के दो नाम हो गए--निरयावलिका और कल्पिका। विषय-वस्तु निरयावलिका श्रुतस्कन्ध का प्रतिपाद्य विषय है—शुभ-अशुभ आचरण, शुभ-अशुभ कर्म और उनका विपाक । १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ८५ २. सूर्यप्रज्ञप्ति, वृत्ति पत्र, १, गाथा ५ अस्या नियुक्तिरभूत् पूर्व श्रीभद्रबाहुसूरिकृता। कलिदोषात् साऽनेशद्, व्याचक्षे केवलं सूत्रम् ॥ ३. सूर्यप्रज्ञप्ति, व. प०१६८.-."तदेवं यथा पूर्वाचायरिदमेव पर्वसूत्रमवलम्ब्य पर्वविषयं व्याख्यानं कृतं तथा मया विनेयजनानुग्रहाय स्वमत्यनुसारेणोपदशितम ।" ४. निरयावलियाओ १४, ५ ५. History of Indian Literature, Second edition, Vol II PP. 457-458 ६. नन्दी, सूत्र ७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003573
Book TitleAgam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Chandapannatti Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_chandrapragnapti
File Size12 MB
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