SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०५९ संपत्त-संलाव संपत्त (सम्प्राप्त) ज २१ सू २१३ उ ११४ से संपुष्णदोहल (सम्पूर्णदोहद) उ ११५०.७५ ८,६३,६३,१४२,१४३, ११ से ३,१४,१५, सिंह (सं+प्र-1ईक्ष ) संपेहेइ ज ३१२६,३६,४७ २१:३।१ से ३,२०,२३,२६,८८,१२६,१५३, उश१७, ३१२६ संपेहेति ज ३।१८८ १५४,१६६,१६७,१७०,४१ से ३,२७,५११, संपेहेमि उ १७६ संपेहेत्ता (सम्प्रेक्ष्य) ज ३२६ उ १११७:३१२६ संपत्ति (सम्प्राप्ति) उ १२४१,४३,४४ संब (शम्ब) उ ५:१० संपत्थिय (सम्प्रस्थित) उ ३१६३,६७,७०,७३ संबंधि (सम्बन्धिन) ज ३।१८७ उ ३१५०,११०, संपन्न (सम्पन्न) ज २०१६ १११;४।१६,१८ सिंपमज्ज (सं+-प्र--मृज) संपमज्जेज्जा ज ५५, संबद्ध (संबद्ध) ज २२० से २७ ७५ से ७६ संबद्धलेसाग (संबद्ध लेश्याक) सू १६।१११२ संपया (संपदा) ज २।७४ । संबररुहिर (शम्बररुधिर), १७१२६ संपराइयबंधग (साम्परायिकबन्धक) प २३१६३ संबाह (सम्बाध) ज २१२२:३।१८,३१,१८०,२२१ संपराइयबंधय (साम्परायिक बन्धक) प २३६१७६ संपराय (सम्पराघ) ज ३।१०३ संबुद्ध (सम्बुद्ध) उ ३१४५ संपरिक्खित्त (सम्परिक्षिप्त) ज १७,६,२३,२५, संमंत (सम्भ्रान्त) उ ११३७ २८,३२,३५,४११,३,६,१४,२५,३१,३६,४३, संभम (सम्भ्रम) ज ३।२०६५।२२,२६ ४५,५७,६२,६८,७२,७६,७८,८६,६०,६५, संभव (सम्भव) ज ७.११४ १०३,१४१,१४३,१४८,१४६,१५२,१७४, संभिन्न (सम्भिन्न ) प ३३.१८ १७६,१७८,१८३,२००,२१३,२१५,२३४, संभिय (श्लेष्मिक) उ ३१३५ २४०,२४१,२४२,२४५,५।३८ सू ३।१:१६२, संभूयग (सम्भूतक) उ ३९८ १२,२८,३२,३६ उ ५१८ संभोग (सम्भोग) उ १२२७,१४० संपरिवुड (सम्परिवत) ज २१८८,६०३१६,१४, संमज्जग (सम्मज्जक) उ ३१५० १८,२२,३०,३१,३६,४३,५१,६०,६८,७७, संमज्जण (सम्मार्जन) उ३१५१,५६,७१,७६ ७८,९३,१३०,१३६,१४०,१४६,१७२,१८०, राजिया सम्मानित) ज २६५ : 3310.१८४: १८६,२०४,२१४,२२१,२२२,२२४; ५।१,५, ५।५७ २२,४६,४७,५६,६७ उ ११२,१६,६२,६३,६७, संमठ (सम्मृष्ट) ज २१६; ३७,५१५७ ६८,१०५ से १०७.१२१,१२२,१२६ से १२८, संमुच्छ (+ मुर्छ, ) समुच्छंति सू ६।१ संमुच्छति १३३, ३११११; ४११८५१६ गु२०११ संपलग्ग (सम्प्रलग्न) ज ३।१०७,१०६ उ १११३८ समुच्छित्ता (सम्मूर्छ य) सु २०६१ संपलियंक (संपर्यडू) ज २८८ संमुच्छिय (सम्मूच्छित ) सू ६१ संपाविउकाम (सम्प्राप्तुकाम) जे ५।२१ सम्माण (स गानय्) सम्माण इ उ १।१०६; संपिडिय (सम्पिण्डित) प १६४१५ ज १२ ३१११० सम्माणति उ ५१३६ सम्मामि संपिणद्ध (संमिनद्ध) ज २११३३,३।२४ उ १११७ संपुच्छण (सम्प्रच्छन) ज ५१५ संलवमाण (संलगत् ) उ ११४७ संपुण्ण (सम्पूर्ण) ज ३१२२१ उ ११३४ संलाव (संलाप) ज २११५:३।१३८ सू २०१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003573
Book TitleAgam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Chandapannatti Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_chandrapragnapti
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy