________________ 387 (क) प्रथम उद्देशक अविनीत साधक द्वारा की गई गुरु-ग्रामातना के दुष्परिणाम गुरु (प्राचार्य) के प्रति विविध रूपों में विनय का प्रयोग 340 गुरु (प्राचार्य) की महिमा 342 गुरु की ग्राराधना का निर्देश और फल 382 द्वितीय उद्देशक वक्ष की उपमा से विनय के माहात्म्य और फन का निरूपण अविनीत और सुविनीत के दोष-गुण तथा कुफन-सुफल का निरूपण लौकिक विनय की तरह लोकोत्तर विनय की अनिवार्यता गुरुविनय करने की विधि / 351 अविनीत और विनीत को सम्पत्ति, मुक्ति आदि की अप्राप्ति एवं प्राप्ति का निरूपण 158 (ग) तृतीय उद्देशक विनीत साधक की पूज्यता विनीत साधक को क्रमशः मुक्ति की उपलब्धि (घ) चतुर्थ उद्देशक विनयसमाधि और उसके चार स्थान विनयसमाधि के चार प्रकार श्रतसमाधि के प्रकार आचारसमाधि के चार प्रकार 370 चतुर्विध-समाधि-फल-निरूपण दशवाँ अध्ययन : स-भिक्षु सभिक्ष : पट्काय रक्षक एवं पंचमहाव्रती ग्रादि सद्गुण सम्पन्न 375 सदभिक्ष : श्रमण चर्या में सदा जागरूक सभिक्ष : आक्रोशादि परीषह-भय-कष्टसहिष्ण प्रथम चूलिका : रतिवाक्या प्राथमिक संयम में शिथिल साधक के लिये अठारह पालोचनीय स्थान उत्प्रवजित के पश्चात्ताप ये विविध विकल्प संयमभ्रष्ट गहवासिजनों की दुर्दशा: विभिन्न दृष्टियों से श्रमणजीवन में हढ़ता के लिये प्रेरणासूत्र द्वितीय चलिका:विविक्तचर्या प्राथमिक चलिका-प्रारंभप्रतिज्ञा, रचयिता और श्रवणलाभ सामान्यजनों से पृथक चर्या के रूप में विविक्तचर्यानिर्देश भिक्षा, विहार और निवास प्रादि के रूप में एकान्त और पवित्र विविक्त चर्या एकान्त प्रात्मविचारणा के रूप में विविक्तचर्या 417 प्रथम परिशिष्ट दशवकालिकसूत्र का सूत्रानुक्रम द्वितीय परिशिष्ट कथा, दृष्टान्त, उदाहरण तृतीय परिशिष्ट प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची 377 181 391 00.0800 821 [80 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org