________________ आचार्य नेमिचन्द्र के प्रवचनमारोद्धार ग्रन्थ पर प्राचार्य सिद्धसेनसूरि ने एक वृत्ति लिखी है। उसमें उन्होंने लिखा है-क्लेश समुत्पन्न करने वाले पाठ कर्मशत्रुनों को जो दूर करता है—वह विनय है—'विनयति क्लेशकारकमष्टप्रकारं कर्म इति विनयः' / विनय से अष्टकर्म नष्ट होते हैं। चार गति का अन्त कर वह साधक मोक्ष को प्राप्त करता है। विनय सद्गुणों का आधार है। जो विनीत होता है उसके चारों ओर सम्पत्ति मंडराती है और अविनीत के चारों ओर विपत्ति / भगवती,१६६ स्थानांग,१६७ औपपातिक'४८ में विनय के सात प्रकार बताए हैं-१. ज्ञानविनय, 2, दर्शनविनय, 3. चारित्रविनय, 4. मनविनय, 5. बचनविनय, 6. कायविनय, 7. लोकोपचारविनय / ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि को विनय कहा गया है, क्योंकि उनके द्वारा कर्म पुद्गलों का विनयन यानी विनाश होता है। विनय का अर्थ यदि हम भक्ति और वहुमान करें तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के प्रति भक्ति और बहुमान प्रदर्शित करना है। जिस समाज और धर्म में ज्ञान और ज्ञानियों का सम्मान और बहुमान होता है, वह धर्म और समाज आगे बढ़ता है। ज्ञानी धर्म और समाज के नेत्र हैं। ज्ञानी के प्रति विनीत होने से धर्म और समाज में ज्ञान के प्रति आकर्षण बढ़ता है। इतिहास साक्षी है कि यहूदी जाति विद्वानों का बड़ा सम्मान करती थी, उन्हें हर प्रकार की सुविधाएं प्रदान करती थी, जिसके फलस्वरूप प्राइन्सटिन जैसा विश्वविश्रत वैज्ञानिक उस जाति में पैदा हुया / अन्य अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिक और लेखक यहूदी जाति की देन हैं। अमेरिका और रूस में जो विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति हुई है, उसका मूल कारण भी वहां पर वैज्ञानिकों और साहित्यकारों का सम्मान रहा है। भारत में भी राजा मण जब कवियों को उनकी कविताओं पर प्रसन्न होकर लाखों रुपया पुरस्कार-स्वरूप दे देते थे तब कविगण जम कर के साहित्य की उपासना करते थे। गीर्वाण-गिरा का जो साहित्य समृद्ध हुआ उसका मूल कारण विद्वानों का सम्मान था / ज्ञानविनय के पांच भेद औपपातिक में प्रतिपादित हैं। दर्शनविनय में साधक सम्यग्दृष्टि के प्रति विश्वास तथा आदर भाव प्रकट करता है / इस विनय के दो रूप हैं-१. शुश्र षाविनय, 2. अनाशातनाविनय / औपपातिक के अनुसार दर्शनविनय के भी अनेक भेद हैं / देव, गुरु, धर्म आदि का अपमान हो, इस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए। पाशातना का अर्थ ज्ञान आदि सद्गुणों की आय-प्राप्ति के मार्ग को अवरुद्ध करना है। महत्, अर्हत्प्ररूपित धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, क्रियावादी, सम ग्राचार वाले श्रमण, मतिज्ञान प्रादि पांच ज्ञान के धारक, इन पन्द्रह की पाशातता न करना, बहुमान करना आदि पैतालीस अनाशातनाविनय के भेद प्रतिपादित हैं। सामायिक आदि पाँच चारित्र और चारित्रवान् के प्रति विनय करना चारित्रविनय है। अप्रशस्त प्रवृत्ति से मन को दूर रखकर मन से प्रशस्त प्रवृत्ति करना मनोविनय है / साक्द्य वचन की प्रवृत्ति न करना और वचन की निरवद्य व प्रशस्त प्रवृत्ति करना वचनविनय है। काया की प्रत्येक प्रवत्ति में जागरूक रहना, चलना, उठना, वैठना, सोना आदि सभी प्रवृत्तियाँ उपयोगपूर्वक करना प्रशस्त कायविनय है। लोकव्यवहार की कुशलता जिस विनय से सहज रूप से उपलब्ध होती है वह लोकोपचार विनय है। उसके सात प्रकार हैं। गुरु आदि के सन्निकट रहना, गुरुजनों की इच्छानुसार कार्य करना, गुरु के कार्य में सहयोग 196. भगवती 257 197. स्थानांगसूत्र, 7 / 130 198. औपपातिक, तपवर्णन 199. प्रासातणा गाम नाणादिप्रायस्स सातणा। --आवश्यकणि (प्राचार्य जिनदासगणि) [ 51 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org