________________ द्वितीय परिशिष्ट : कथा, दृष्टान्त, उदाहरण] [435 धूमधाम के साथ बरात लेकर जब वे विवाह के लिए श्वसुरगृह पधार रहे थे, तभी उन्होंने जूनागढ़ के पास बहुत पशुओं को बाड़े और पिंजरों में बंद देखा / उन पीड़ितों की करुण पुकार सुन कर श्री अरिष्टनेमि ने जानते हुए भी जनता को बोध देने हेतु सारथि से पूछा—ये पशु यहाँ किसलिए बंद किये गए हैं ?' सारथि ने कहा--'भगवन् ! ये पशु आपके विवाह में सम्मिलित मांसाहारी बरातियों के भोजनार्थ यहाँ लाये गए हैं। यह सुनते ही उनका चित्त अत्यन्त उदासीन हुमा / सोचा—मेरे विवाह के लिए इतने पशुओं का वध हो, यह मुझे अभीष्ट नहीं है / उनका चित्त विवाह से हट गया। उन्होंने समस्त आभूषण उतार कर सारथि को प्रीतिदानस्वरूप दे दिये और उन पशुनों को बन्धनमुक्त करा कर वापस घर लौट पाए / एक वर्ष तक अापने करोड़ों स्वर्णमुद्राओं का दान देकर एक सहस्र पुरुषों के साथ स्वयं साधुवृत्ति ग्रहण की। तदनन्तर राजकन्या राजीमती भी अपने अविवाहित पति के वियोग के कारण संसार से विरक्त होकर उन्हीं के पदचिह्नों पर चलने के लिए तैयार हुई / राजीमती ने 700 सहचरियों सहित उत्कट वैराग्यभाव से भागवती दीक्षा अंगीकार की। एक बार वे भगवान् श्री अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ रैवतक पर्वत पर जा रही थीं / रास्ते में अकस्मात् भयंकर अन्धड़ और वर्षा होने के कारण सभी साध्वियां तितर-बितर हो गईं। उस भयंकर वर्षा से राजीमती साध्वी के सब वस्त्र भीग गए थे। एक गुफा को एकान्त निरापद समझकर उसमें प्रवेश किया / निर्जन स्थान जान कर व्याकुलतावश साध्वी राजीमती ने अपने सब वस्त्र उतार कर भूमि पर सुखा दिये / उसी गुफा में भगवान श्रीअरिष्टनेमि के छोटे भाई श्रीरथनेमि मुनि ध्यानस्थ खड़े थे / बिजली की चमक में उनकी दृष्टि श्रीराजीमती के निर्वस्त्र देह पर पड़ी / राजीमती का शरीरसौन्दर्य और एकान्तवास देख कर रथनेमि का चित्त कामभोगों की ओर आकर्षित हो गया। वे विमूढ़ होकर राजीमती से प्रार्थना करने लगे। इस पर विदुषी राजीमती ने विभिन्न युक्तिपूर्वक प्रबल वैराग्यपूर्ण उपदेश देकर श्रीरथनेमि को संयममार्ग में स्थिर किया। श्री राजीमती के प्रेरक वचनरूप अंकुश से जैसे रथनेमि का कामविकार क्षणभर में उपशान्त हो गया, वैसे ही तत्त्वज्ञ संयमी साधु का मन कामविकारग्रस्त हो जाने पर उसे वीतरागवचनरूपी अंकुश लगाकर शीघ्र ही कामविकार से निवृत्त हो जाना चाहिए। - उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 22 बृहद्वृत्ति -दशवैकालिकसूत्र, अ. 2 हारि. वृत्ति / (6) अमूच्छित होकर भिक्षाचर्या करना (संपत्ते मिक्खकालम्मि असंभंतो अमुच्छिमओ.) भिक्षाचरी के समय साधु शब्दादि विषयों में आसक्त न होकर आहार की गवेषणा में रत रहे, इसके लिए जिनदासचूणि में गोवत्स और वणिकवधू का एक दृष्टान्त है एक वणिक के यहाँ गाय का छोटा-सा बछड़ा था / वह सबको अत्यन्त प्रिय था। घर के सभी लोग प्यार से उसकी सारसंभाल किया करते थे। एक दिन वणिक के यहाँ कोई जीमणवार था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org