________________ द्वितीय परिशिष्ट : कथा, दृष्टान्त, उदाहरण] [433 शिष्य-'किसी उदाहरण द्वारा इसे समझाइए।' गुरुदेव-'पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी के पास एक लकड़हारे ने राजगृही में दीक्षा ली / दीक्षित होकर वह साधु जब राजगृही में भिक्षा के लिए घूमता तो कुछ धनोन्मत्त लोग उसे ताने मारते-'देखोजी ! यह वही लकड़हारा है, जो सुधर्मास्वामी के पास प्रवजित हो गया है। साधु बार-बार लोगों की व्यंग्योक्ति सुनकर तिलमिला उठा। उसने गणधर सुधर्मास्वामी से कहा-'अब मुझसे ये ताने नहीं सहे जाते / इसलिए अच्छा हो कि आप मुझे अन्यत्र ले पधारें।' आचार्यश्री ने अभयकुमार से कहा-'हमारा अन्यत्र विहार करने का भाव है।' अभयकुमार ने पूछा-'क्यों पूज्यवर ! क्या यह क्षेत्र मासकल्पयोग्य नहीं, जो आप इतने शीघ्र ही यहाँ से अन्यत्र विहार करना चाहते हैं ?' प्राचार्यश्री ने वह घटना आद्योपान्त सनाई। उसे सुनकर अभयकुमार ने कहा-'पाप निश्चिन्त होकर विराजें, मैं लोगों को युक्ति से समझा दूंगा।' प्राचार्यश्री वहीं विराजे / बुद्धिमान् अभयकुमार ने दूसरे दिन एक सार्वजनिक स्थान पर तीन रत्नकोटि के ढेर लगवा कर नगर में घोषणा कराई–'अभयकुमार रत्नों का दान देना चाहते हैं / ' घोषणा सुनकर घटनास्थल पर लोगों की भीड़ जमा हो गई। अभयकुमार ने एक ऊँचे स्थान पर खड़े होकर कहा---'मैं ये तीन रत्नकोटि के ढेर उस व्यक्ति को देना चाहता हूँ, जो अग्नि, सचित्त जल और स्त्री, इन तीनों चीजों को जीवन भर के लिए छोड़ देगा।' यह सुनते ही लोग बगलें झांकने लगे, बोले-'इन को छोड़कर कौन तीन रत्नकोटि लेना चाहेगा?' जब कोई भी इन तीनों साररत्नों का आजीवन त्याग करने को तैयार न हुआ तो अभयकुमार ने कहा- 'तब क्यों ताना मारते हो कि यह निर्धन लकड़हारा प्रवजित हुया है ? इनके पास स्थूल धन भले ही न रहा हो, परन्तु इन्होंने तीन साररत्नकोटियों का जीवनभर के लिए त्याग किया है। लोग निरुत्तर होकर बोले-'अापकी बात यथार्थ है, मंत्रिवर ! अब हम कदापि इनके प्रति घृणा नहीं करेंगे / ये महान् त्यागी एवं पूज्य हैं।' 'हे शिष्य ! इसी प्रकार तीन सार पदार्थ-अग्नि, सचित्त जल और कामिनी का जीवनभर के लिए स्वेच्छा से त्याग कर प्रवजित होने वाला निर्धन व्यक्ति भी श्रमणधर्म में स्थिर होने पर त्यागी ही कहलाएगा।' -दशवै. अ. 2, गा. 3, हारि. वृत्ति, पत्र 63 (6) कदाचित् मन संयम से बाहर निकल जाए तो ! (सिया मणो निस्सरई बहिद्धा०) एक राजकुमार बाहर उपस्थानशाला में खेल रहा था / एक दासी जल से भरा हुया घड़ा लेकर पास से निकली / राजकुमार ने कंकर मार कर उसके घड़े में छिद्र कर दिया। दासी रोने लेगी। उसे रोती देख राजकुमार ने फिर कंकर मारा। इस बार छेद कुछ बड़ा हो गया / दासी ने सोचा-'जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो कहाँ पुकार की जाए ?' यह सोच कर उसने कीचड़ से सनी गीली मिट्टी ली और घड़े के छेद पर लगा दी। इस तरह घड़े का छिद्र बन्द करके वह घड़ा लेकर घर पहुंच गई। इसी प्रकार संयमरूपी घट में रहते हुए, कदाचित् संयमी का मन संयमघट से, अप्रशस्त परिणामरूपी छिद्र द्वारा बाहर निकलने लगे तो अपनी दीन-हीनता एवं असमर्थता का रोना-धोना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org