________________ द्वितीय परिशिष्ट' : कथा, दृष्टान्त, उदाहरण] [431 दे दी। शिष्य गुरु के अत्यन्त स्नेहवश प्रत्येक बात में छूट मिलती देख एक दिन बोला-'गुरुजी ! अब मैं स्त्री के बिना नहीं रह सकता !' गुरु ने उसे अयोग्य और सुविधालोलुप जान कर अपने प्राश्रय से दूर कर दिया / सच है, कामनाओं के वशीभूत व्यक्ति बात-बात से शिथिल होकर सुकुमारतावश श्रमणत्व से भ्रष्ट हो जाता है / __-दशवै. अ. 2, गा. 1, हारि. वृत्ति, पत्र 89 (3) परवशतावश त्यागी, त्यागी नहीं (अच्छंदा जे न भुजंति०) नन्द के अमात्य सुबन्धु ने चन्द्रगुप्त को प्रसन्न करने के लिए एक दिन अवसर देख कर कहा'मैं धनलिप्सु नहीं, कर्तव्यपरायण हूँ, अत: आपके हित की दृष्टि से कहता हूँ कि आपकी मां को चाणक्य ने मार डाला है !' चन्द्रगुप्त ने अपनी धाय से पूछा तो उसने भी इसका समर्थन किया / जब चाणक्य चन्द्रगुप्त के पास आया तो उसने उपेक्षाभाव से देखा / चाणक्य समझ गया कि राजा मुझ पर अप्रसन्न है और सम्भव है, मुझे बुरी मौत मरवाए। चाणक्य ने घर आकर अपनी सारी सम्पत्ति पुत्र-पौत्रों में बांट दी / तत्पश्चात् उसने गन्धचूर्ण एकत्रित करके एक पत्र लिखा। उसे एक के बाद एक क्रमश: चार मजषानी में रखा / उक्त मजषानी को गन्धप्रकोष्ठ में रख कर कीलो से जड़ दिया / तत्पश्चात् वन में जाकर इंगिनीमरण अनशन धारण कर लिया / / राजा को यह बात विश्वस्त सूत्र से ज्ञात हुई तो वह पश्चात्ताप करने लगा / अन्तःपुर सहित राजा चाणक्य से क्षमा मांग कर उसे वापस राज्य में लौटा ले पाने के लिए वन में पहुंचा। चाणक्य से निवेदन करने पर वह बोला--'अब मैं नहीं लौट सकता। मैंने धन-वैभव, आहारादि सभी कुछ त्याग दिया है।' चन्द्रगुप्त नृप से अवसर देखकर सुबन्धु बोला-'अापकी आज्ञा हो तो मैं इसकी पूजा करू ?' राजा की स्वीकृति पाकर सुबन्धु ने चाणक्य की पूजा के बहाने धूप जलाया और उसे उपलों पर फेंक दिया, जिससे आग की लपटें उठी और चाणक्य वहीं जल कर भस्म हो गया। सुबन्धु ने राजा को प्रसन्न कर चाणक्य का घर और गृहसामग्री मांग ली / चाणक्य के घर में गन्धप्रकोष्ठ में रखी हुई मंजूषा देखी / कुतूहलवश खोली, तो उसमें एक सुगन्धित पत्र मिला। उसमें लिखा था-"जो इस सुगन्धित चूर्ण को सूधेगा, फिर स्नान करके वस्त्राभूषण धारण करेगा, शीतल जल पीएगा, गुदगुदी शय्या पर सोयेगा, यान पर चढ़ेगा, गन्धर्वगीत सुनेगा और इसी तरह विभिन्न मनोज्ञ विषयों का सेवन करेगा, साधु की तरह नहीं रहेगा, वह शीघ्र ही मरण-शरण होगा किन्तु जो इन सबसे विरत होकर साधु की तरह रहेगा, वह नहीं मरेगा।" यह पढ़ कर सुबन्धु चौंका / उसने दूसरे मनुष्य को गन्धचूर्ण सुघा कर तथा मनोज्ञ विषयभोग सामग्री का सेवन करा कर इस बात की यथार्थता की जांच की / सचमुच, वह भोगासक्त मनुष्य मर गया। अत: जीवनलालसावश सुबन्धु अनिच्छापूर्वक साधु की तरह रहने लगा। जैसे मृत्युभयवश अनिच्छापूर्वक भोगसामग्री त्याग कर साधु की तरह रहने वाला सुबन्धु त्यागी साधु नहीं कहा जा सकता, वैसे ही परवशता के कारण भोगों को न भोगने वाला भी त्यागी साधु नहीं कहा जा सकता / -दशवै. अ. 2, गा. 2, चूर्णिद्वय एवं हारि. वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org