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________________ प्रथमा चलिका : रतिवाक्या] [401 भोगता है, उसी प्रकार साधु भी विषयभोगरूपी बन्धनों से गृहवास में बंधा उत्प्रवजित भी घोर दुःख भोगता है / इष्टसंयोग न मिलने से उसके विषयभोगों में विघ्न पड़ता है, जिससे उसका मन कुत्सित चिन्तामों के कारण संतप्त होता है / लोहे की साँकलों से बंधा हुआ हाथी घोर कष्ट भोगता है, वैसे ही विषय-भोगों के झूठे लालच में फंसकर गृहस्थवास को शृखला से बंधा हुआ उत्प्रवजित भी घोर दुःख पाता है। (9) स्त्री-पुत्रों से घिर जाने के कारण-संयम छोड़कर गृहस्थवास में उत्प्रवजित व्यक्ति स्त्री-पुत्रादि से घिर जाता है / जिस प्रकार दल-दल में फंसा हुमा हाथी दुःख पाता है, उसी प्रकार उत्प्रव्रजित भी स्त्री-पुत्र आदि के मोहमय दल-दल में फंस कर घोर दुःख पाता है / उस समय हाथी की तरह वह उत्प्रवजित भी शोक करता है कि हाय ! मैं पहले इस विषयभोग के दल-दल में न फंसता और संयम-क्रियाओं में दृढ़ रहता तो मेरी अाज ऐसी दुर्दशा न होती! संयम छोड़कर मैंने क्या लाभ उठाया?'० 'प्रायई' प्रादि शब्दों के विशेषार्थ-प्रायइ-प्रायति : तीन अर्थ-(१) भविष्यकाल, (2) श्रात्महित या (3) गौरव / कब्बडे : कर्बट-तीन प्रसिद्ध अर्थ-(१) बहुत छोटा सन्निवेश, या क्षुद्र गंवारू गांव, (2) कुनगर, जहाँ क्रय-विक्रय न होता हो, (3) ऐसा कस्बा, जहाँ छोटा-सा बाजार हो / सेट्टी-श्रेष्ठी-(१) जिस पर लक्ष्मी का चित्र छपा हो, ऐसी पगड़ी (वेष्टन) बांधने की जिसे राजाज्ञा प्राप्त हो। (2) वणिक-ग्राम का प्रधान (3) राजमान्य नगरसेठ ।"छमं-क्ष्मापृथ्वी / संयमभ्रष्ट गृहवासिजनों की दुर्दशा : विभिन्न दृष्टियों से 550. अज्ज या हं गणी होतो भावियप्पा बहुस्सुओ। जइ हं रमंतो परियाए सामण्णे जिणदेसिए // 9 // 551. देवलोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं / रयाणं, प्ररयाणं च महानिरय-सालिसो // 10 // 552. अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं, रयाण परियाए, तहाऽरयाणं / निरओवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं, रमेज्ज तम्हा परियाए पंडिए // 11 // 9. दशवकालिक (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 1018 10. वही, पृष्ठ 1019 11. (क) अगस्त्यचूणि (ख) राजकुललद्धसम्माणो, समाविद्धवेट्ठगो वणिग्गामहत्तरो य सेट्ठी / - अग . चूणि (ग) जम्मि य प सिरियादेवी कज्जति, तं वेट्टणगं जस्स रन्ना अणुन्नातं सो सेट्ठी भण्णइ। --निशीथणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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