________________ नवम अध्ययन : विनय-समाधि] [347 निस्सेसं : दो रूप : दो अर्थ-(१) निःश्रेयस—मोक्ष। (2) नि:शेष --समस्त / ये सब विनय के इहलौकिक फल हैं / अथवा निःशेष श्लाघा का विशेषण है / अविनीत और सुविनीत के दोष-गुण तथा कुफल-सुफल का निरूपण 471. जे य चंडे मिए थद्ध दुव्वाई नियडी सढे / बुब्भई से अविणीयप्पा, कळं सोयगयं जहा // 3 // 472. विणयं पि जो उवाएण चोइओ कुप्पई नरो। दिव्वं सो सिरिमेजति दंडेण पडिसेहए // 4 // 473. तहेव अविणीयप्पा उववज्झा हया गया। दीसंति दुहमेहंता आमिओगमुवट्ठिया // 5 // 474. तहेव सुविणीयप्पा उववज्झा हया गया। दोसंति सुहमेहंता इढि पत्ता महायसा // 6 // 475. तहेव प्रविणोयप्पा लोगंसि नर-नारिओ। दीसंति दुहमेहंता छाया ते विगलिविया // 7 // 476. दंड-सत्थ-परिजुण्णा असम्भवयणेहियय / कलुणा विवन्नछंदा, खुप्पिवासाए परिगया // 8 // 477. तहेव सुविणीयप्पा लोगंसि नर-नारिओ। दीसंति सुहमेहंता इड्डि पत्ता महायसा // 9 // 478. तहेव अविणीयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसंति दुहमेहता आभिओगमुवट्ठिया // 10 // 479. तहेव सुविणीयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसंति सुहमेहंता इड्डि पत्ता महायसा // 11 // [471] जो क्रोधी (चण्ड) है, मृग-पशुसम अज्ञ है, अहंकारी है, दुर्वादी (कठोरभाषी) है, कपटी और शठ है; वह अविनीतात्मा संसारस्रोत (जलप्रवाह) में वैसे ही प्रवाहित होता रहता है, जैसे जल के प्रबल स्रोत में पड़ा हुअा काष्ठ / / 3 / / (472] (किसी भी) उपाय से विनय (-धर्म) में प्रेरित किया हुआ जो मनुष्य कुपित हो जाता है, वह पाती हुई दिव्यलक्ष्मी को डंडे से रोकता (हटाता) है / / 4 / / 3. (क) “णिस्सेयसं च मोक्खमधिगच्छति।' ----अगस्त्यचूणि (ख) 'श्र तम--अंगप्रविष्टादि, श्लाघ्यं-प्रशंसास्पदभूतं, नि:शेष-सम्पूर्ण अधिगच्छति।' -हारि. वृत्ति, पत्र 247 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org