________________ 316] [दशवकालिक सूत्र से गुणा करने पर 18000 भेद शीलांगरथ के हुए / साधु इस शीलांगरथ पर सतत प्रारूढ़ रहे / कितना भी संकट, भय या प्रलोभन पाए, इसे न छोड़े। जे णो करंति जे णो कारयति जे णो समणु जाणति 6000 मणसा 2000 वयसा 2000 कायसा 2000 णिज्जिय आहारसंज्ञा णिज्जिय भयसंज्ञा णिज्जिय मैथुनसंज्ञा 500 णिज्जिय परिग्रहसंज्ञा 500 श्रोत्रेन्द्रिय / चारिन्द्रिय | घ्राणेन्द्रिय / रसनेन्द्रिय / स्पर्शेन्द्रिय | 100 पृथ्वी तेज वायु / वनस्पति द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय अजीवारभ क्षान्ति / मुक्ति आर्जव | मार्दव / लाघव | सत्य / संयम 1 (निर्लोभता)! 3 4 5 / तप ब्रह्मचर्य | आकिंचन्य 10 2 / कुम्मोन्य अल्लीन-पलीणगुत्तो : व्याख्या--इस पंक्ति का अर्थ स्पष्ट है। भावार्थ यह हैकच्छप की तरह कायचेष्टाओं का निरोध करे। अगस्त्यचूणि के अनुसार-गुप्त शब्द का प्रालीन और प्रलीन दोनों के साथ सम्बन्ध होने से, अर्थ हमा-कर्म की तरह साधु पालीनगुप्त और प्रलीनगुप्त रहे / अर्थात्---कूर्मवत् कायचेष्टा का निरोध करे (आलीनगुप्त रहे) और कारण उपस्थित होने पर यतनापूर्वक शारीरिक प्रवृत्ति करे। (प्रलीनगुप्त रहे) / जिनदासचूणि के अनुसार-आलीन का अर्थ है-थोड़ा लीन और प्रलीन का अर्थ-विशेष लीन / अर्थात् जिस प्रकार कर्म अपने अंगों को गुप्त (संकोच कर सुरक्षित) रखता है और आवश्यकता पड़ने पर धीरे से उन्हें पसारता है, उसी प्रकार श्रमण भी पालीन-प्रलीनगुप्त रहे / 44 44. (क) अ. चू., पृ. 195 (ख) जिन. चूणि, पृ. 287 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org