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________________ 314] [दशवकालिकसूत्र आध्यात्मिक दोषों के मूल ये चार कषाय हैं। इनसे आत्मिक गुणों की हानि होती है। चार घाती कर्मों-विशेषतः पापकर्मों की वृद्धि होती है। प्रीति अर्थात् प्रात्मौपम्यभाव या वत्सलता जीवन की सुधा है / विनय जीवन की रसिकता है और मित्रता जीवन का मधुर अवलम्बन है तथा आत्मसंतुष्टि जीवन की शान्ति है, अानन्द है। क्रोधादि चारों कषायों से जीवन की सुधा, रसिकता, अवलम्बन और आनन्द (शान्ति) का नाश हो जाता है। प्रात्मगुणों का ह्रास हो जाता है। चेतन मोहग्रस्तता के कारण जडवत् बन जाता है / यह अात्महित का सर्वनाश है। अतः आत्महितैषी साधु-साध्वी के लिए कषाय सर्वथा त्याज्य है / लोभो सविणासणो-लोभ से प्रीति आदि सब गुण नष्ट हो जाते हैं। उदाहरणार्थ-लोभ के वशीभूत होकर पुत्र मृदुस्वभाव एवं मानवतापरायण पिता से रुष्ट हो जाता है, सम्बन्ध तोड़ लेता है, क्रोधान्ध होकर दुर्वचन बोलता है, यह प्रीति का नाश है / पुत्र को धन का भाग नहीं मिलता है तो उद्धत होकर पिता के सामने अविनयपूर्वक बोलता है, गालीगलौज करता है, उनको कुछ नहीं समझता, भाग लेने को कटिबद्ध हो जाता है, यह विनय का नाश है और कपटपूर्वक येन-केनप्रकारेण धन ले लेता है, पूछने पर छिपाता है, छलकपट से विश्वास उठ जाता है, इस प्रकार मित्रभाव नष्ट हो जाता है / यह लोभ की सर्वगुणनाशक वृत्ति है / कसिणा कसाया : व्याख्या—'कसिणा' शब्द के संस्कृत में दो रूप होते हैं कृत्स्न (सम्पूर्ण) और कृष्ण (काला) / यद्यपि कृष्ण का प्रधान अर्थ काला रंग है, किन्तु मन के दुर्विचारों से ये चारों कषाय प्रात्मा को मलीन करने वाले हैं। इसलिए कृष्ण का अर्थ संक्लिष्ट किया गया है / दुष्ट विचार आत्मा को अन्धकार में ले जाते हैं, भावतिमिरवश अात्मा संक्लेश पाता है।४. कषाय : व्याख्या-कषाय जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। इसके अनेक अर्थ हैं। प्राचीन व्याख्या इस प्रकार है-कष अर्थात् संसार-जन्ममरण का चक्र / उसकी आय अर्थात् लाभ जिससे हो, वह कषाय है। कषायवश प्रात्मा अनेक बार जन्म-मरण करता है, संसार में परिभ्रमण करता है / इसलिए कहा है -'सिचंति मूलाई पुणब्भवस्स', अर्थात् कषाय पुन: पुनः जन्म-मरणरूप संसारवक्ष की जड़ों को सींचते रहते हैं। कषाय के क्रोध आदि 4 प्रकार के गाढ रंग हैं, जिनसे आत्मा रंजित होता है, कषायों के गाढ रंग के लेप से आत्मा कर्मरज से लिप्त-श्लिष्ट हो जाता है। अर्थात्-इनके लेप से प्रात्मा पर कर्मपरमाणु चिपक जाते हैं। क्रोधादि कषाय के रंगरस से भीगे हुए प्रात्मा पर कर्म-परमाणु चिपकते हैं, दीर्घकाल तक रहते हैं / यह कषाय शब्द का दार्शनिक विश्लेषण है।" 38. दशव. (संतबालजी), पृ. 111 39. जिनदासचूणि, पृ. 286 40. (क) कृत्स्नाः सम्पूर्णाः कृष्णा वा क्लिष्टाः / - हारि. वृत्ति, पत्र 234 (ख) अहवा संकिलिला कसिणा भवन्ति / जिन. चणि, पृ. 286 41 वही, पृ. 403 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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