________________ 310 [दशवकालिकसूत्र करता है / परन्तु सच्चा साधु गृहस्थ की, पदार्थ की या ग्राम की निन्दा नहीं करता, वह सन्तोष धारण कर लेता है कि गृहस्थ की चीज है, वह दे या न दे, उसकी इच्छा है / 27 मव : प्रात्मविकास में सर्वाधिक बाधक-जब मनुष्य अपनी थोथी बड़ाई हांकता है, अपने को उत्कृष्ट बताता है. तब वह प्रायः दूसरों की निन्दा करता है। दूसरों को नीच, निकृष्ट या पापी बताकर उनका तिरस्कार करता है। अपनी जाति, कुल, बल, रूप, तप, लाभ, श्रुत, ऐश्वर्य आदि का भद (घमंड) करके अपना ही आत्मविकास रोकता है / चिकने कर्मों का बन्ध करके आत्मा पर अशुद्धि का आवरण डालता है। मद आते ही आत्मा पतन की ओर बढ़ती चली जाती है। मोक्ष-द्वार के निकट पहुँचे हुए बड़े-बड़े ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी भी अष्टफन मदरूपी सर्प के चक्कर में पड़ कर संसारसागर में भटक जाते हैं। अहंकारी साधु साधुत्व, सम्यक्त्वी, सम्यग्ज्ञानो या श्रमणधर्मी होने का दावा नहीं कर सकता। इसलिए मद के दुर्गुण को छोड़ कर ही प्रात्मा निर्विकार हो सकती है / 28 __ आत्मशुद्धि में बाधक : माया-माया, क्रोध, लोभ और मद से भी बढ़ कर भयंकर है, दुर्गणों की खान है, सत्यमहाव्रत को भस्म करने वाली ज्वाला है। यह कई रूपों में साधु या साध्वी के जीवन में पाती है। अधर्म या अनाचरणीय का आचरण केवल प्रज्ञान में ही नहीं होता, किन्तु यदाकदा ज्ञानपूर्वक भी होता है / जानबूझ कर भी कई बार मनुष्य अधार्मिक कृत्य कर बैठता है / इसका कारण है--मोह। मोह के उदयवश राग और द्वेष से ग्रस्त मुनि जानता हुअा भी मूलगुण या उत्तरगुण में दोष लगाता है, कभी अज्ञानवश कल्प्य-प्रकल्प्य, करणीय-अकरणीय का ज्ञान न होने से प्रकल्प्य या प्रकरणीय कर बैठता है / शास्त्रकार गाथा 419 में कहते हैं कि अधार्मिक कृत्य हो गया हो तो उसे तुरन्त वहीं रोक देना चाहिए अन्यथा मायाग्रस्त होकर साधक की आत्मा अशुद्ध हो जाएगी। अगली गाथा 420 में कहते हैं कि यदि कोई भी अधर्मकृत्य-अनाचरणीय कृत्य हो गया तो उसे छिपायो मत / जो दोष करके गुरु के समक्ष छिपाता है या पूछने पर अस्वीकार करता है वह पाप पर और अधिक पाप चढ़ाता जाता है। यदि पालोचना और प्रायश्चित्त प्रादि से उस कृत पाप को शुद्धि न की गई तो फिर अनुबन्ध पड़ जाएगा, जिसका फल चातुर्गतिक दुःखमय संसार में परिभ्रमण करके भोगना पड़ेगा / अतः भूल या अपराध होते ही तुरन्त गुरुजन के समक्ष आलोचना करके कुछ भी छिपाए बिना, जैसा और जितनी मात्रा में, जिस भाव से दोष लगा है, उसे प्रकट कर दे और गुरु से प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाए। इसीलिए साधक के विशेषण 420 वी गाथा में बताए हैं-सुई सया वियडभावे० अर्थात्-वह साधक सदा पवित्र, स्पष्ट, अलिप्त और जितेन्द्रिय रहे / 20 अणायारं' इत्यादि पदों के विशेषार्थ-अणायार-अनाचार अर्थात-सावद्यकृत्य, अनाचरणीयप्रकरणीय / परक्कम्म-सेवन करके / नेव गूहे न निन्हवे-यहाँ दो शब्द हैं, दोनों माया के पर्याय हैं२७. दशवे. (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.), पत्र 774 28. वही, पत्र 775 29. (क) ...... तेण साहुणा जाहे जाणमाणेण रागद्दोसवसएण मूलगुण-उत्तरगुणाण अण्णतरं प्राधम्मियं पयं पडिसेवियं भवइ, अजाणमाणेण वा अकप्पियबुद्धीए पडिसेविष होज्जा। -जिन. चणि, पृ. 284-285 (ख) दशवै. (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.) पत्र 777 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org