SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 292] [दशकालिकसूत्र भाषाशुद्धि को फलश्रुति 388. परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, चउक्कसायावगए अणिस्सिए / स निद्धणे धुण्णमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं // 57 / / -त्ति बेमि॥ // सत्तमं वक्कसुद्धि-अक्षयणं समत्तं // 7 // [388] (जो साधु गुण-दोषों की) परीक्षा करके बोलने वाला है, जिसकी इन्द्रियाँ सुसमाहित हैं, (जो) चार कषायों से रहित है, (जो) अनिश्रित (प्रतिबन्ध रहित या तटस्थ) है, वह पूर्वकृत पाप-मल को नष्ट करके इस लोक तथा परलोक का अाराधक होता है। ऐसा मैं कहता हूँ // विवेचन-परीक्ष्यभाषी की अर्हता और उपलब्धि-जो साधु सुसमाहितेन्द्रिय, कषायों से रहित तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के प्रतिबन्ध से मुक्त-तटस्थ है, वही वचन के गुण-दोषों की परख करके बोल पाता है तथा तप-संयम के प्रभाव से पूर्वकृत वही पाप-मल को नष्ट कर डालता है तथा अपने सुन्दर संयम से सत्पुरुषों में इस लोक में मान्य बनता है तथा परलोक में उत्तम देवलोक या सिद्धगति को प्राप्त कर लेता है / यह उसको सर्वोत्तम उपलब्धि है / 45 // सप्तम : वाक्यशुद्धि-अध्ययन समाप्त // 45. धुनमलं-पापमलं / -हारि. वृत्ति, 224 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy