________________ 270] दिशवकालिकसूत्र 340. अईयम्मि य कालम्मि पच्चप्पन्नमणागए / जत्थ संका भवे तं तु 'एवमेयं' ति नो वए // 9 // 341. अईयम्मि य कालम्मि पच्चुप्पन्नमणापए। निस्संकियं भवे जं तु 'एवमेयं ति निद्दिसे // 10 // [337-338] इसलिए हम जाएंगे, हम कह देंगे, हमारा अमुक (कार्य) अवश्य हो जाएगा, या मैं अमुक कार्य करूगा, अथवा यह (व्यक्ति) यह (कार्य) अवश्य करेगा; यह और इसी प्रकार की दूसरी भाषाएँ, जो भविष्यत्काल सम्बन्धी, वर्तमान कालसम्बन्धी अथवा अतीतकाल-सम्बन्धी अर्थ (बात) के सम्बन्ध में शंकित हों; धैर्यवान् साधु न बोले / / 6-7 / / 6331] अतीतकाल, वर्तमान काल और अनागत (भविष्य) काल सम्बन्धी जिस अर्थ (बात) को (सम्यक् प्रकार से) न जानता हो, उसके विषय में यह इसी प्रकार है,' ऐसा नहीं बोलना चाहिए |8| [340] अतीत, वर्तमान और अनागलकालसम्बन्धी जिस अर्थ (बात) के विषय में शंका हो, (उसके विषय में)-'यह ऐसा ही है'; इस प्रकार नहीं कहना चाहिए / / 6 / / [341] अतीत, वर्तमान और अनागतकालसम्बन्धी जो अर्थ निःशंकित हो, उसके विषय में 'यह इस प्रकार है', ऐसा निर्देश करे (कहे) / / 10 // विवेचन--निश्चयकारी भाषा का निषेध-प्रस्तुत 5 सूत्रों में से चार सूत्रों में (337 से 340 तक) में तीनों काल से सम्बन्धित निश्चयकारी भाषा का निषेध तथा 341 सूत्रगाथा में त्रिकालसम्बन्धी निर्णय करने के पश्चात् निःशकित होकर दीर्घदृष्टि से विचार कर निश्चित रूप से कहने का विधान भी किया है। निश्चयकारो भाषा : स्वरूप तथा निषेध का कारण पूर्वसूत्र (336 वीं) गाथा में 'वेषशंकित' भाषा का निषेध था, इन चार सूत्रों में क्रियाशंकित' भाषा का निषेध है। तीनों कालों के विषय में निश्चयात्मक वचन इस प्रकार का होता है-भविष्यत्कालोन--'यह कार्य अवश्य ही ऐसा होगा, कल मैं अवश्य ही चला जाऊंगा, इत्यादि / ' भविष्य अज्ञात होता है, अव्यक्त होता है। न मालम कब कौन-सा विघ्न आ जाए और वह कार्य पूरा न हो। तब निश्चय-वक्ता को झूठा बनना पड़ता है / वत्तमानकालीन-'स्त्रीवेषधारी पुरुष को देख कर यह कहना कि यह स्त्री ही है।' भूतकालीन-भूतकाल में जिसका निर्णय ठीक से नहीं हुआ, उस विषय में निश्चित रूप से कह देना कि वह ऐसा ही था / यथा---'वह गाय ही थी या बैल हो था।' इस प्रकार त्रिकालसम्बन्धित शंकायुक्त निश्चयात्मक भाषा है, जिसका प्रयोग साधु-साध्वी को नहीं करना चाहिए / इस प्रकार कह देने से नाना उपद्रव खड़े हो सकते हैं। जैन शासन की लघुता हो सकती है। अबोधदशा में कह देने से उक्त साधु-साध्वी के प्रति लोकश्रद्धा डगमगा सकती है / 8. तहेवाणागतं अठं जं दण्णऽणवधारितं / संकितं पडपण्णं वा, एवमेयं ति णो वदे // 8 // --अगस्त्यचूणि, गा. 8 एसो पासण्णो, अणागतो विकिटलो। प्रणवधारित-प्रविणातं / -अ.., पृ. 166 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org