________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा] [263 वैमानिक देवों के निवासस्थान विमान कहलाते हैं / रत्नत्रयाराधक साधक उत्कृष्टतः अनुत्तर विमान तक को प्राप्त कर लेते हैं / 56 / छठा : धर्माऽथं कामाऽध्ययन समाप्त / (क) मोहं विवरीयं ण मोहं अमोहं पस्संति-अमोहदंसिणो। ---अ. चू., 157 (ख) अमोहं पासंति त्ति अमोहद सिणो सम्मदिट्ठी / -जि. च, पृ. 233 (ग) अध्याणं-अप्पा इति एस सद्दो जीवे सरीरे य दिटुप्रयोगो। जीवे जधा मतसरीरं भण्णति-गतो सो अप्पा, जस्सिम सरीरं। तत्थ सरीरे ताव थूलप्पा किसप्पा / इह पुण तं खविज्जति / अप्पवयणं सरीरे पोरालियसरीरखवणेण कम्मणं वा सरीरक्खवणमिति, उभयेणाधिकारो। -अ. च., पृ. 157 (घ) दशव. (मा. आत्मा.), पृ. 383 (ङ) स्वविद्यविद्यानुगता:-स्व इति अप्पा, विज्जा-विन्नाणं, प्रात्मनि विद्या सविज्जा, अज्झप्पविज्जा / विद्यागणातो सेसिज्जति, अझप्पविज्जा जा विज्जा, साए अणुगता। --अ. चु., पृ. 158 (च) बीयं विज्जागहणं लोइयविज्जापडिसेहणत्थं कयं ।---जि. चू. पृ. 234 (छ) स्वविद्या--परलोकोपकारिणी केवलश्र तरूपा / (ज) उऊ छ, तेसु पसन्नो उउप्पसण्णो , सो पुण सरदो। प्रहवा उडू एव पसण्णो / -अ. चु., पृ. 158 (झ) जहा सरए चंदिमा विसेसेण निम्मलो भवति। -जिन. चुणि., पृ. 234 (ब) विमानानि-सौधर्मावतंसकादीनि / --हारि, वृत्ति, पत्र 207 (ट) विमाणाणि-उक्कोसेण अणुत्तरादीणि / --अगस्त्यणि , पृ. 158 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org