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________________ 214] [दशवकालिकसूत्र [237] इसी प्रकार (बेर आदि) फलों का चूर्ण, (जौ आदि) बीजों का चूर्ण, बिभीतक (बहेड़ा) तथा प्रियालफल, इन्हें अपक्व जान कर छोड़ दे (न ले) / / 24 / / विवेचन-अपक्व-प्रशस्त्रपरिणत भक्तपान को लेने का निषेध–प्रस्तुत 11 सूत्रगाथानों (227 से 237 तक) में शास्त्रकार ने कतिपय ऐसी खाद्य पेय वस्तुओं के नाम गिनाए हैं, जिनके छेदन-भेदन करने पर या कूटने-पीसने पर या एक बार गर्म किये जाने पर अचित्त (निर्जीव) हो जाने को भ्रान्ति से साधु-साध्वी ग्रहण कर सकते हैं, अतः इन्हें पूरी तरह से अचित्त, पक्व व शस्त्रपरिणत न होने तक ग्रहण न करने के लिए साधु-साध्वियों को सावधान किया है। उप्पलं आदि शब्दों के अर्थ-उप्पलं-उत्पल-नीलकमल / पउम-पद्म-रक्तकमल या अरविन्द / कुमुयं-कुमुद–चन्द्रविकासी कमल / मगदंतियं : तीन अर्थ-(१) मालती, (2) मोगरा, अथवा (3) मल्लिका (बेला)। सालुयं-कमलकन्द अर्थात्-कमल को जड़ / बिरालियं : विदारिका : विभिन्न अर्थ हरिभद्रसूरि के अनुसार-पर्ववल्लि, प्रतिपर्ववल्लि या प्रतिपर्वकन्द / अगस्त्यचणि के अनुसार-क्षीरविदारी, जीवन्ती और गोवल्ली। जिनदासचूणि के अनुसार बीज से नाल, नाल से पत्ते और पत्ते से जो कन्द उत्पन्न होता है, वह पलाशकन्दी, विदारिका है / कुमुउप्पलनालियं-कुमुदनालिका और उत्पलनालिका; अर्थात्-क्रमश: चन्द्रविकासी कमल की नाल और नीलकमल की नाल / मुणालियं-पद्मनाल (मृणाल) अथवा जो पद्मिनीकन्द से निकलती है, हाथीदांत-सरीखी होती है, वह / उच्छुखंडं अनिव्वुडं-पर्वाक्ष या पर्वसहित इक्षुखण्ड अनिवृत अर्थात्-अपक्व / तात्पर्य-तात्पर्य यह है कि पर्वसहित गन्ने के टुकड़े सचित्त होते हैं। यह सब वनस्पतिजन्य खाद्य केवल छेदन करने, मर्दन करने (मसलने या कुचलने) मात्र से या टुकड़े कर देने से अथवा वृक्ष से तोड़ लेने मात्र से अचित्त, पक्व या शस्त्रपरिणत नहीं हो जाते; इसलिए इन्हें लेने का निषेध किया है। 17. (क) उत्पलं नीलोत्पलादि / --जिन. चू., पृ. 196 (ख) पउमं नलिणं। --अ. चू., पृ. 128 (ग) पद्मम् अरविन्दं वापि / कुमुदं वा गर्दभकं वा। -हारि. वृत्ति, पत्र 185 (घ) मगदंतिका-मेत्तिका, मल्लिकामित्यन्ये / -हारि. वृत्ति, पत्र 185 (ङ) 'सालयं उप्पलकंदो।' --अ. चू., पृ. 129 (च) विरालियं पलासकंदो अहवा छीरविराली, जीवन्ती गोवल्ली इति एसा। -अच., पृ. 129 (छ) विरालिका-पलाशकन्दरूपां, पर्ववल्लि-प्रतिपर्ववल्लि-प्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये / -हारि. वत्ति, पत्र 185 (ज) विरालियं नाम पलासकंदो भण्णइ जहा बीए बस्सी जायंति, तीसे पत्ते, पत्ते कंदा जायंति, सा विरालिया / —जिन, चूर्णि, पृ. 197 झ) 'मृणालं पद्मनालं च / ' - शा. नि. भू., पृ. 538 (ब) 'मुणालिया गयदंतसन्निभा पउमिणिकंदानो निग्गच्छति / ' –जि. चु,, पृ. 197 (ट) उच्छृखंडमवि पव्वेसु धरमाणेसु ता नेव अनवगतजीवं कप्पइ। -जि. चू., पृ. 197 (ठ) इक्षुखण्डम्-अनिवृत्तं सचित्तम्। —हारि. वृत्ति, पत्र 185 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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