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________________ 204] [दशकालिकसूत्र सरस है दुर्लभ है / (3) टीका के अनुसार--प्रासुक होते हुए भी यह तो बहुत थोड़ा है इससे क्या होगा ? अथवा प्रासुक बहुत होते हुए भी निःसार है, रद्दी है, इस प्रकार कह कर निन्दा नहीं करनी चाहिए। महधयं व भुजेज्ज-जैसे मधु (शहद) और घृत दोनों सुरस होते हैं, इस दृष्टि से व्यक्ति प्रसन्नतापूर्वक उनका सेवन कर लेता है, वैसे ही अस्वादवृत्ति वाला साधु नीरस भोजन को भी सुरस मान कर सेवन करे / अथवा जैसे मधु और घो को बाँए जबड़े से दाहिने जबड़े की ओर ले जाने की श्रावश्यकता नहीं रहती, व्यक्ति सीधा ही गले उतार लेता है, वैसे ही साधु नीरस आहार को भी मधुघृत की तरह सीधा निगल ले / मुहाजीवी-मुधाजीवी : पर्थ, लक्षण और व्याख्या--दो अर्थ (1) जो जाति, कुल आदि के आधार पर प्राजीविका करके नहीं जीता, (2) अनिदानजीवी-नि:स्पृह और अनासक्तभाव से जीने वाला / अथवा भोगों का संकल्प किये बिना जीने वाला। प्रस्तुत सन्दर्भ में इसका विशेष अर्थ यह भी हो सकता है कि जो किसी प्रकार का उपदेश आदि का बदला चाहे बिना निस्पृह भाव से जो भी प्राहार मिले, उससे जीवननिर्वाह करने वाला हो। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण प्रसिद्ध है.---"श्रेष्ठ धर्म की पहिचान उस धर्म के गुरु से ही हो सकती है, जिस धर्म का गुरु निःस्पृह और निःस्वार्थ बुद्धि से आहारादि लेकर जीता है, उसी का धर्म सर्वश्रेष्ठ होगा।" इस विचार से प्रेरित होकर राजा ने घोषणा कराई कि राजा भिक्षाचरों को मोदकों का दान देना चाहता है। इस घोषणा को सन कर अनेक भिक्षाचर दान लेने पाए। राजा ने उनसे पूछा--आप लोग किस प्रकार अपना जीवननिर्वाह करते हैं ? उनमें से एक भिक्षु ने कहा-मैं कथक हूँ, अत: कथा कह कर मुख से निर्वाह करता हूँ। दूसरे ने कहा-मैं सन्देशवाहक हूँ, अतः पैरों से निर्वाह करता हूँ। तीसरा बोला-मैं लेखक हूँ, अतः हाथों से निर्वाह करता हूँ। चौथे ने कहा- मैं लोगों का अनुग्रह प्राप्त करके निर्वाह करता हूँ और अन्त में पांचवें भिक्षु ने कहा-मैं संसार से विरक्त मुधाजीवी निर्ग्रन्थ हूँ। मैं निःस्पृह भाव से संयमनिर्वाह के लिए, मोक्षसाधना के लिए जीता हूँ, उसी के लिए किसी प्रकार की अधीनता या प्रतिबद्धता स्वीकार किये बिना, जो भी पाहार मिल जाए उसी में सन्तुष्ट रहता हूँ। यह सुन कर राजा अत्यन्त प्रभावित हुया और उसे मुधाजीवी साधु जान कर उसके पास प्रवजित हो गया / 500 - - ------- ------- 98. (क) फासुएसणिज्जं दुल्लभं ति अप्पमवि तं पभूतं, तमेव रसादिपरिहीणमवि अप्पमवि" / -अ. चू., 124 (ख) तं बह मण्णियब्वं, जं विरसमवि मम लोगो अणुवकारिस्स देति तं बहु मन्नियब्बं / --जि. च., 190 (ग) अल्पमेतन्न देहपूरकमिति किमनेन ? बहु वा प्रसारप्रायमिति। --हारि. वृत्ति, पत्र 181 99. (क) महुघते व भुजेज्ज-जहा महु घतं कोति सुरसमिति सुमुहो भुजति, तहा तं (असोहणमवि) सुमुहेण भुजितव्वं / अह्वा महुघतमिव हणुयातो हणुयं असंचारतेण ! -अग. चू., पृ. 124 100. (क) मुधाजीवि नाम जं जातिकलादीहिं पाजीवणविसेसेहिं परं न जीवति। -जिन. चूणि, पृ. 190 (ख) मुधाजीवि सर्वथा अनिदानजीवी, जात्याद्यनाजीवक इत्यन्ये / हारि. वृत्ति, पत्र 181 (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), प. 256 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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