SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिशकालिकसूत्र उसका उत्तर शास्त्रों या ज्ञानी पुरुषों के द्वारा (श्रवण से) मिलता है कि 'कारण के बिना कार्य नहीं होता / ' विभिन्न कर्म ही विभिन्न गतियों में जन्ममरण आदि के कारण हैं। शुभकर्मों के कारण सुगति और अशुभकर्मों के कारण दुर्गति मिलती है। इस प्रकार साधक गतियों एवं उनके अन्तर्भेदों को सहज ही जान लेता है। पूण्य और पाप कर्मों को विशेषता के कारण सब जीवों के समान होते हुए भी विभिन्न गतियाँ, योनियाँ तथा सुखदुःख, शरीरादि संयोग मिलते हैं / जीव और कर्म का जो परस्पर क्षीर-नीरवत् संयोग (बन्धन) है, वही चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण का कारण है / जो तप, संयम और रत्नत्रयसाधना के द्वारा इन बन्धनों (कर्मबन्ध) को काट देता है, वह कर्म, संसार एवं जन्ममरणादि के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली गतियों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। यही मोक्ष है / 17 इस प्रकार जीव-अजीव को जानने वाला साधक विविध गतियों तथा पुण्यपाप एवं बन्ध-मोक्ष को सम्यक प्रकार से जान लेता है, साथ ही जो इनमें से हेय है उसे त्याग देता है और उपादेय को ग्रहण कर लेता है / तात्पर्य यह है कि वह जीव और कर्म के ऐकान्तिक वियोगरूप मोक्ष को, जो कि शाश्वत सुख का हेतु है, उसे जान लेता है। जीवों की नरकादि नाना गतियों एवं मुक्त जीवों की स्थिति को, तथा उनके कारणों को तथा बन्ध एवं मोक्ष के अन्तर और उनके हेतुनों को भलीभांति जान लेता है / इस प्रकार सम्यग्ज्ञान के द्वारा उसका अनुभव परिपक्व हो जाता है / 18 प्रात्मशुद्धि द्वारा विकास का आरोहकम 70. जया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं+ च जाणई / तया निधिदए भोए, जे दिवे जे य माणुसे // 39 // 71. जया निविदए भोए, जे दिब्वे जे य माणुसे। तया चयइ संजोगं . सभितर-बाहिरं // 40 // 72. जया चयइ संजोगं सम्भितर-बाहिरं / तया मुंडे भवित्ताणं पम्वइए प्रणगारियं // 41 // 117. (क) यदा-यस्मिन्काले जीवानजीवांश्च द्वावध्येतो विजानाति—विविधं जानाति, तदा तस्मित्काले गति नरकगत्यादिरूपां बहविधां---स्वपरगतभेदेनानेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति / यथावस्थितजीवाजीव परिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाभावात / —हारि, वत्ति., पत्र 159 (ख) तेसिमेव जीवाणं आउ-बल-विभव-सुखातिसूतितं पुण्णं च पावं च अढविहकम्मणिगलबंधण मोक्खमवि। ---अ. चू., पृ. 94 (ग) पुण्यं च पापं च बहुविधगतिनिबन्धनं तथा बन्धं-जीवकर्मयोगदुःखलक्षणं, मोक्षं च तदबियोग सुखलक्षणं जानाति / " -हारि. वृत्ति., पत्र 159 118, (क) "बहविधग्गहणेण नज्जइ जहा समाणे जीवत्ते ण विणा पूण्णपावादिणा कम्मविसेसेण नारकदेवादिविसेसा भवंति / " -जिनदास. चूणि, पृ. 162 (ख) दसवेयालियं [मुनि नथमलजी] पृ. 168 पाठान्तर + मुक्खं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy